Saturday, April 4, 2009

तसल्ली मे ख़्याब

दिन बितते जा रहे हैं और उनके अन्दर की तसल्ली बड़ती जा रही है। ये तसल्ली इत्मिनान से बैठने के समान नहीं है। यहाँ से सपनों की दुनिया आरम्भ होती जाती है। वे सपने जिन्हे अब हकीकत मे बदलने का समय नजदीक आने लगा हो। वे सपने जिन्हे कभी आँख बन्द करके देखा भी नहीं था। वे सपने जिन्हे कभी किसी से बोला भी नहीं था और वे सपने जिन्हे ये मानकर जीया था कि ये कभी पूरे होगें इसका भी अन्दाजा नहीं था। ये सपना भी उन सपनों की भांति भूल जाने की जिद्द करता जैसे आधी रात मे आती गहरी नींद मे आते सपनों के साथ होता है। जो याद रखने से लड़ते हैं।

इन सपनों मे जितनी निर्मलता थी उतनी ही इस सपने मे पीड़ा, लेकिन देखने से अनटोक भी नहीं कर सकते थे। ये बेहद हल्का अहसास था। जिसे बताया या समझाया नहीं जा सकता था। बस, निभाने की मुहीम चलाई जा सकती थी।

आँख अभी उनकी पूरी तरह से खुली नहीं थी। ऐसा लगता था जैसे वे आँख खोलना भी नहीं चाहती थी। मैं उनके दरवाजें पर खड़ा ये इन्तजार कर रहा था कि वे कुछ बोले। लेकिन वे अभी आधी नींद मे थी। उनके कागज़ातों मे कुछ कमी थी। जिसकी वज़ह से उनसे जितनी भी बार मिला उतनी ही बार वे उन कागज़ातों से ही डर जाती। उनका डर उनके लिए जैसे चुभने के समान बन जाता।

वे खड़े होकर बड़ी सहजता से मुस्कुराते हुए बोली, "दुआ से सब कबूल हो जाये। ये मेरे अकेले की दुआ नहीं है। इसमें वे सभी है जो हमारी तरह आज सपनों मे खोए हुए हैं। ऊपर वाला सबकी फरियाद सुनले। हे मेरे मौला। आज तो ऐसा लगा एक पल के लिए जैसे हम यहाँ पर थे ही नहीं। एक बड़ी सी जगह में हो। सारे थे वहाँ जो हमे जानते थे। बस, बारिसो मे न भेजें ये हमें, पूरे भीग जायेगें। डर लगता है जब बारिशों मे कहीं इस तरह से भेजा जाये तो। अभी भी डर सा लग रहा है। खुले से माहौल में सारे समान को बचाकर रखे या ख़ुद को। कभी न रहने दिया था हमें ऐसे खुले में आज हम ऐसे ही बैठे रहे थे। नींद पर काबू हो गया है। सपनों में किसी तीसरी दुनिया के चित्र दिमाग मे घूमने लगते हैं। ये कहाँ के है वे तो मालुम नहीं है बस, अच्छी बात ये है कि वहाँ पर हम अकेले न है। खूब मिट्टी की भीनी-भीनी खुशबू भर रही है चारों ओर। हे भइया कहाँ के बारे मे जिक्र हुआ है देने वालों के बीच में? कहाँ पर भेजेंगे हमे ये लोग? बनाने की फिक्र नहीं हैं अब तो हमें, अल्ला मियाँ ने ख़्याब मे सब रोशन कर दिया है। जब किसी जगह पर बैठा दिया है तो बनवा भी जरूर देगा। इसकी फिक्र न है।

हम सभी दूर-दूर से जाकर कुछ-कुछ समान उठाकर ला रहे हैं। मेरे तो मियाँ ने बड़े-बड़े पत्थरों का भी इन्तजाम कर दिया है। सोने के लिए तो ये ही काफी होगें हमारे लिए। मैंने जमीन पर बहुत अच्छे से पानी का छिड़काव करके झाडू से सारा आलम पाक कर दिया है। अभी तो रात काफी हो गई थी नहीं तो सारा का सारा आज ही बना देते। चारपाई तो हमारे पास है ही। मगर मेरे मियाँ ने उसके चारों बाँस निकालकर जमीन मे गाड़ दिए है और उनपर चड़ा दी है चद्दरें। अच्छा हुआ मैंने चद्दरें पहले ही खरीद ली थी। जो आज काम मे आ गई। फिर उन बड़े-बड़े पत्थरों को एक सार रखकर हमनें सोने का इंतजाम किया। आज रात मे तो हम बिना कुछ खाये ही सो गए थे। मेरे मियाँ ने पहले ही कह दिया था कि जो कुछ हाथ लगे खाते चलना, क्या पता वहाँ क्या मिले या न मिले। इसलिए मैंने तो पहले ही अंजीरे खा लिए थे। रात बहुत हो गई है, जमीन मे ऐसा लग रहा है जैसे कुछ चल रहा है। जब पत्थर के नीचे हाथ डाला तो पता लगा की पानी बह रहा है। बारिस हो रही है। चद्दर के आरपार रोशनी दिखाई देती रही है। हमारा ये घर शायद बस्ती के बीच मे है। हर तरफ की चादर मे से रोशनी नज़र आ रही है। रात भर बड़ी सुहानी नींद आई और देखो जब आँख खुली तो यहीं पर थे। ये ख़्याब नहीं था, ये अल्ला मियाँ ने इशारा किया है की हमें उसने आसरा दे दिया है।"


आज इतने दिनों मे पहली बार उनके चेहरे पर हँसी देखकर बहुत सुकुन पँहुच रहा था। ये अचानक कैसे हुआ? ये मैं समझना नहीं चाहता था लेकिन कुछ जानने की इच्छा हो रही थी। वे हीटर जलाते हुए बोले जा रही थी और मैं वहीं पर खड़ा ये सब सुने जा रहा था। पहले तो सोचने लगा की ये स्वाभाविक है कि कुछ चीज़ जब अपनी जगह से हिलने लगती है तो उसकी कल्पानिक जगह के चित्र ख़्याबों मे उतर आते हैं। फिर सोचा की ये वक़्त बहुत हावी है जिससे दिमाग उसे भूलना ही नहीं चाहता। मगर क्या ये सच मे स्वाभाविक है? उनके चेहरे से जब ये भरपूर चित्र निकलते तो कुछ भी ऐसा नहीं लगता जैसे वक़्त अपना वज़ूद खो बैठा है।

चाय का पानी खौल चुका है उनका ध्यान यहाँ पर बिलकुल भी नहीं है। वे अपने सिर पर हाथ रखे बैठी हैं, "मैं तो बस, यही चाहती हूँ की सब एक ही जगह पर रहें। कहने को तो वो सब हो जायेगे जो इंसान करना चाहता है। लेकिन बस, आसपास के लोग साथ रहे, दूर ही सही लेकिन दिखते रहे तो सब बहुत जल्दी से हो जाता है।"


लख्मी

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