उस उपजाऊ रहन-सहन को लेकर किसी की दिनचर्या रास्तों से होकर निकल जाती।
जिसमें लोगों की भागीदारी उनके बसने के बाद के सवालो मे जीती हैं कि जीवन कैसे और कोई भी परिस्थिती में, अपने आपको बनाये रखने की जिद्द को मुस्कुराकर ज़िन्दा रखता है? ये धीरे-धीरे समझ में आने लगता है। कहीं-कहीं पर पानी से भरे गढ्ढो, ऊँची-नीची मिट्टी की सतहों पर जब पाँव पड़ते हैं तो वादिओं का दर्शन हो गया है ऐसा महसूस होता है।
हवा जैसे सारे आलम को तरोताज़ा कर देती है। नीले आसमान के नीचे खुली दरोंदिवारों में मटरगस्ती करते बच्चों का दस्ता मेरी ओर आता है। उनके हाथें में मिट्टी की गाड़ियाँ और मिट्टी के बर्तन हैं। वो उन मिट्टी की सारी चीज़ों को असली का मानकर चलाते हैं। मासूम बच्चों के चेहरे में खुदा की छवि नज़र आती है। इसलिये उनको देख कर बड़ा शुकून सा मिलता है। ऐसा अभी तक न जाने कितने मुँह से मैं सुनता आया हूँ इसलिए वही शुकून मुझे भी मिला।
पानी से भरे चौराहे के गढ्ढों को आने-जाने वाले लोग लाँघ कर जाते। मैं वहीं दोपहर करीब साढ़े तीन बजे तख़्त पर अपने दोस्त सूरज के साथ बैठा बच्चों के खेल देख रहा था। कुछ मिनट ही बीते थे की न जाने पीछे से कोई जनाब आकर मेरे काँधो को जोर से मसककर बोले, "बताओ कौन?”
चौंककर मैं पलटा। ये भी कोई बात हुई आवाज़ की बुनियाद पर भला कौन किसी नहीं पहचान सकता है? आवाज़ तो सब बयाँ कर देती है। तो मुझे क्या तकलीफ़ होती।
"भाई मोहतरम ही होंगे।"
भाई मोहतरम, सुर्ख गालों पर हाथ फिराकर अपने कुरते को झिटक कर बोले, "इस बार फिर पहचान गए तुम को आवाज़ की बड़ी परख है।"
"न ऐसा कुछ नहीं पर तुम्हे पहचान ने का फोर्मुला मेरे पास है। तुम्हारा अंदाज मेरे दिमाग में ज्यों-का-त्यों छप गया है। खैर, छोड़ो ये बेकार की बातें ये बताओ किसी लिए याद किया?”
"ये लो कागज और कलम"
"इसे क्या मेरे सिर पे रखोगें?”
मुस्कुराके मोहतरम भाई ने मेरी तरफ फरमाया, "नहीं जनाब छोटे भाई जो ऐटा में एक यूनिर्वसटी में पढ़ रहे हैं उन्हे मनीऑडर भेजना है।"
"ओह ये काम था।"
सूरज ने तभी न जाने क्यों एक तड़कता-भडकता शेर सुनाया।
"न पूछ के क्या हाल है हमारा,
न पूछ के क्या हाल है हमारा।
तुझे मिला बीच संमदर और हमें मिला किनारा।
तेरे चक्कर में मैं रह गया कवाँरा।"
ये सच मे किसी को नहीं मालुम था कि उसने ये क्यों सुनाया था मगर ये शेर सुनकर हम सब उसपर वाह-वाह करते हुए सवार हो गए। सलीम भाई जो चॉक पर ही अपने हेयर कटींग का खोका लगाते हैं उनका खोका फिल्म के बड़े से बड़े ऐक्टरों के पोस्टरों से सजा पड़ा था। आइने के साथ कागज के फूलों वाला गुलदस्ता भी उनकी दुकान को गुलज़ार कर रहा था।
सलीम भाई भी अपने पज़ामे का नाड़ा कसते हुए शेरो-शायरी के खिचड़ी में छोंका लगाने चले आये। खाली बैठने से कुछ हाथ न लगेगा यहाँ थोड़ा मुफ़्त में मज़ा मिल जायेगा। वक़्त तो काटना ही था।
तपाक से वो आकर बोले, "अर्ज है कि
क्या होगा कल न तुझे पता न मुझे ख़बर है।
क्या होगा कल न तुझे पता न मुझे ख़बर है
तेरे लिए इस दिल में मगर जगह बेश़ूमार है।
मेरी दुकान में भी कभी आ जाना कैटरीना
यहाँ तेरा ही इंतजार है।"
शेर कहकर उन्होनें अपनी बनीयान में हाथ डालकर जोर-जोर से हिलाना शुरू कर दिया। तालियाँ बजनी शुरू हुई। सब अपने थे और कोई अपना नहीं था। अपने काम को से कभी मन उब जाने के कारण ये सब इक्ट्टा होकर मंडली सी जोड़ लेते।
चूल्हे का धुँआ आँख में चला आया। पलके झपने लगी तो आँखों को मसलना शुरू कर दिया। दोहपरी मे कौन चूल्हा जला रहा था ये मुझे अटपटा लगा क्योंकि कभी मैनें ऐसा नहीं सोचा था। आँखों एक हाथ से मसलता और उस के साथ खिसियाकर करता ये कोई वक़्त है आग जलाने का सारा धुँआ मेरी आँखों में चला गया।
मुझे तो जरा सा धुँआ ही लगा था जिसपर मुझे गुस्सा आया। जब कभी हालात हमारे मुताबिक नहीं होते तो अक्सर ऐसा ही होता है। मगर जगह की बौद्धिकता वो उस कल्पना को सामने लाकर रख देती है जिसे हमारा मन खोज़ता रहता है। कभी ये खोजना ही हमें हमारी असली छवि से मिलवा देता है।
राकेश
No comments:
Post a Comment