गोदाम से उठकर टेम्पू में चीज़ों को जोर से फैंकने की आवाज़े कानो में लग रही थी। सोनू अपनी कमीज़ की आश्तिनों को ऊपर चढ़ा कर दाये-बाँये जगह को देर तक देखने लगा। सारी चीज़ों और दिवारों को नापते-परखते हुए वो नीचे बैठ गया फिर कुछ पलों के बाद वो सारी चीज़ों पर ऐसे निंगाहे डालने लगा जैसे पूरे गोदाम की शिनाफ्त (जाँच-पडताल) कर रहा हो।
वो अपना नसीब आज़माने के लिए शहर चला आया था। ये सुनकर की शहर में 'रोज़ कुआँ खोदो और रोज़ पानी पियो' वाली नीती चलती है। इस जुमले को वो अपने साथ ज़ुबाँ पर लिख लाया था पर वैसा बिल्कुल भी नहीं था जैसा वो सोचकर आया था। क्या यही सब के साथ होता है?
जनाब दिल्ली की तो दास्तान ही अलग है। यहाँ कभी ऐसा भी होता है की जहाँ हम खोद रहे हैं वहाँ पानी की जगह गैस लाईन, पाईप लाईन और केवल लाईनों का सिमटा हुआ जाल निकल आता हैं। प्रमोद सें बड़ी गुज़ारिश करने के बाद सोनू को गोदाम में काम मिला था। काम का अपनी दुनिया के साथ बड़ा गहरा रिश्ता होता है। जब रहता है आदमी काम करता है पर साथ ही में काम ज़िन्दगी की वो सीडी बन जाती है जिस पर चलकर कोई भी शख़्स ज़िन्दगी की वास्तविक्ता को ऊँचाई से देख सकता है जिसमें उसकी अपनी कल्पना होती है अपनी चाहत होती है।
सोनू ने भी कुछ ऐसा ही चाह था। उसका सपना था की वो यहाँ से पैसे कमाकर अपने जीने का ढ़ंग बदले और अपने जीवन में खुशहाली लाये। यूँ तो ये मुराद सब माँगते हैं लेकिन किसी-किसी की ही मुराद पूरी होती है। जीवन भर क्या पूरा हुआ क्या अधूरा रहा की चिन्ता लगी रहती है। मगर ये भी क्या कम है की काम के साथ सब अपनी एक अदृश्य छवि बना लेते हैं। जिसे हर कोई नहीं देख पाता। बस, वही देखता है जो इसी छवि में जीता है।
गोदाम में मिले काम के मौके को सोनू ऐसे ही कैसे जाने देता? रोज़ाना काम में लग जाता तन-मन एक कर देता। अपने साथ वाले लड़के को देखकर वो भी काम को समझने लगा।
सोनू प्रमोद के साथ काम पर लग गया। गोदाम में किसी की अपनी जगह थी तो कोई किसी के पास काम करता था। अपने घर में भले ही चूल्हा न जले पर दूसरे का पेट तो भर ही दिया करते थे। गोदाम एक परीवार सा दिखता तो कभी मिल कर बाँटने वाली जगह नज़र आती।
सब रोज़ इसी भेषबूसा में अपनी-अपनी कारस्तानियों में लग जाते किसी से कोई मतलब न रखते हूँ। सोनू भी जल्दी ही सब से घुल मिल गया। पूरे दिन बस्ती के कोने-कोने में फेरी मार के आता फिर दिन में तीन-चार बार माल बिनकर ले आता फिर काँटे पर चढ़वाता। अब वो अपना काम बेहतरीन ढ़ंग से करना जान चुका था। उसे किसी की जरूरत नहीं थी।
शहर के हाथों ने और गोदाम से उठने वाली समझ और वहाँ की काम की शिक्षा ने उसे जीना सीखा दिया था। गोदाम में आकर एक और नौजवान ने अपनी ज़िन्दगी की शुरूआत की थी। बाहर से आता रास्ता जो चौराहे से निकाल कर गोदाम में आता था। वो गली इतनी ही चौड़ी थी की बस, टेम्पू के लिए ही जगह बचती थी। जरा सा आगे कदम रखो तो दो-तीन हाथ ही जगह बचती।
रोज़ाना कोई किस्सा सब के पास बतीयाने को होता। तमाम अफ़वाहों के उडने के बाद भी गोदाम में काम करने वाले शख़्सों को जीवन अपनी लय में चलता रहता। शहर में हर बार चूनाव आते और पहले गोदाम और बस्ती तोड़ने की अफ़वाहें उछालती फिर हमर्ददो की तरह आकर बड़ी-बड़ी डीगें मारते की हम आप का घर नहीं टूटने देगें। ये कह कर वो वोट माँग चले जाते।
गोदाम का अपना अस्तित्व है वो बना इस जगह में मिलनसार और अपनी चाहतों पूरा करने का ठिकाना।
जहाँ पर सबने पहली -पहली बार अपने नये जीवन की शुरूआत की और कुछ काम-धँधा न मिलने पर अपने आप जीने की मुहीम को छेड़ा । काम तो तलाश लिया जिससे दो-तीन वक़्त का गुज़ारा हो जाता।
हाथों में न ही कोई हुनर था न ही कोई ज्ञान जिसे अपना मानकर समाज में जगह बना कर जिया जाया। बस, ये ही दो हाथ जो हथेलियों पर पड़ी लकींरे जिनसे कोई काम न चलने वाला था। नसीब को रोकर क्या मिलता खुदा ने अपना काम तो कर दिया हमें इस दुनिया में भेजकर अब अपनी बारी थी। सो अपने जीवन को खुद ही बनाने की जिद्द ठान ली और आगे बढ़ते गए सफ़र काटता गया।
चौराहे पर जो जीवन नित-नयी सम्भावनाएँ दे रहा था। वो अपने को खुद ही बनाता और खुद ही शाम की तैयारी करते हुए सब कुछ समेटता है।
राकेश
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