भागती दौड़ती ज़िन्दगी में कुछ तो हैं जिसमें कभी न कभी ठहर जाते हैं और अपने ईर्द-गिर्द घूमती आवाज़ों में भटक जाते हैं।
फिर एक छाव सी मिल जाती है जिसके तले बैठ के मन को मानों जैसे एक साहिल मिल गया लेकिन वो साहिल नहीं जिसपर खड़े होकर लोग डूबते सूरज को देखते हैं। ये वो सवेरे की उजली किरणों को अपने में लेकर जी भरके साँस लेने की आज़ादी है।
जो शहर के आवागमन में एक भूख देती है।
दिनाँक- 12-04-2009, समय- सुबह 10:30 बजे
राकेश
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