Thursday, April 30, 2009

चौराहों का गोदाम

थककर मैं वहाँ बैठ गया जहाँ से मुझे वो चेहरा याद आया जो मेरी कल्पनाओं के अधखुले दरवाज़ों से होकर कभी गुज़रा था। आज यकायक वो दृश्य आँखों में वापस उमड़ आया जिसकी चमक में अंधेरे से उजालें की तरफ कदम बड़ाया था। जब तक मैं उस चेहरे को जी भरकर देख लेता तब तक मेरे शरीर की सभी माँसपेशियों ने मेरा साथ छोड़ दिया था।

अपने सामने आने वाली नंगी आवाज़ों सें मैं बचने की कोशिश करता। मैं किसी कतार में नहीं खड़ा था। मेरे चारों ओर लगी दूकाने, पी.सी.ओ बूथ, सब्जी का ठिया, चाय-नमकिन का ठिया जहाँ पर रोज़ाना महफिलें सजती। प्रर्चून की दुकान, सलीम भाई की हैयर कटिंग की दुकान, बाबूराम हलवाई की दुकान जिसकी जलेबियों का स्वाद सब की ज़ुबाँ पर रहता है।

इस सारी उथल-पुथल भरे वातावरण में कोई अंजान सा प्रकाश बिखरा हुआ था। उसी प्रकाश में तमाम वस्तुओं की दुनिया सी नज़र आ रही थी। कोई जिज्ञासा सी इस माहौल में मुझे अपनी तरफ खींचे जा रही थी। मैं हताश सा होकर इधर-उधर झाँकने लगा। वहाँ मौज़ुद लोगों के बावज़ूद चीज़ों का वज़ूद कुछ और ही चेतना लिए बैठा था। जिसके अन्दर से कई किरणें निकलकर मेरी इंन्द्रियों को एक अंजाना सा स्वाद दे जाती।

जहन पर ये ढेर सारी दस्तक...
चौराहों से आती टोली वहाँ के ठहरे समय को हल्के से छेड़ जाती। लोगों की परछाइयों का झुँड चला आता। कहीं से आकर ठहर जाने के बाद यहाँ फिर किसी तरह की रफ़्तार होने लगती पर वो रफ़्तार क्या होती ये पता नहीं था। जैसे लोहे को काटते हाथ जब, एक के बाद एक लोहे को काटने का प्रयास कर रहे होते हैं तो वे खुद भी लोहा बन जाते हैं।

वैसे ही इस चौराहें का गोदाम अपने आपको एक ऐसी सिद्दत से देखता है। लगता है की आसमान से ओश की बूंद बनकर गिरने वाले शीतल अहसासों का झुँड़ यहाँ आ गया हो या कोई चाहतों सें खड़ी की गई समय को मिट्टी और पानी की तरह आपस में मिलाकर और दुनिया के सारे बागीचों से कलियाँ चुन-चुनकर अपने पास जमा करली हैं। उसी तरह जगह को बनाने मे भी वही शिर्कत नज़र आती है।

जो न घर है न रहगीरों का ठिकाना वो तो चीज़ों से कोई आकार देने की लरक है।
जो किसी चीज़ की ऐसी स्थिती या रूप है। गोदाम की असली पहचान ये है या नहीं इस बात पर मुझे संदेह है। जीवन में कौन सुख और इज्जत नहीं चाहता। सारे सुखों से इंसान को ये सुख क्या कम है कि वो जटील से जटील हालातों में भी ज़िन्दा है।

ऊंची-ऊंची और बड़ी महत्वकाँक्षा के अतरिक्त भी ज़िन्दगी में महत्वकाँक्षा पलती है।
जो आम जीवन में संजीवनी बूटी की तरह हर शख़्स को पुर्नजीवित करती रहती है।
फैसलों में अपने आपको आग मे सोने की तरह जलाने की जद्दोजहद भी इंसान ही करता है।

रोज़ाना गोदाम में काम करते हुए रेडियो और सीडी प्लैर पर नये और पुराने गाने सुनते, फिल्मी गानों में ये सब इतने मसगुल हो जाते हैं की न सुबह का पता चलता न शाम ढ़लने की ख़बर होती।

प्रमोद, दीपक, शेरू भाई मस्ती से चीज़ों को छाँटते। दोनों पैरों को मोड़कर बैठते। हाथ और कपड़े गोदाम के काम में मैले हो जाते। फिर भी चेहरा फूलों की तरह मुस्कुराता रहता है। आँखों में झील कैसी गहराई होती है। कब कहाँ से कैसी या कौन सी आवाज़ पैदा हो जाती कुछ पता न चलता। मेरी सोचने की क्षमता जेसै और ऊर्जा माँगती।

तमाम तरह की चीज़ों के ऊपर बैठे-बैठे वो हाथों को मशीन से भी तेज चलाते। लगता उनके हाथ में कोई मकैनिकल पुर्जा लगा है जिसकी मदत से वो फुर्ती से काम करते। ये मकैनिकल पुर्जा यहाँ कहाँ बनता है? मैं इस के बारे में जानना चाहता हूँ।

बाहर क्या हो रहा है? वो इस से बेख़बर होकर अपने दुनिया में कुछ न कुछ तलाशते रहते थे। ये कैसा देखना था जो वास्तविक्ता को ही तोड़ देता था। जब वो चीज़ों की छटनी करते तो देखते-देखते ही वे कहीं इतनी दूर चले जाते की जहाँ से वापसी की कोई गुंजाइश न होती। आँख जैसे चीज़ों और जगह के रूप से फिसल कर खुद से बनाये माहौलो में लेकर गिर जाती।

चीज़ों की इन सब को बड़ी परख होती एक ही बार में कौन सी चीज़ काम चलाऊ है या कैसी है। वो ये अच्छी तरह पहचान जाते हैं। पूरे दिन गोदाम मे आए माल में छटाई होती फिर आखिर में रद्दी, हल्की प्लास्टिक और कड़क प्लास्टिक को अलग-अलग करके तराजू पर चढ़ा दिया जाता। शाम तक गोदम का सारा माल बेच दिया जाता। बस, आज का काम ख़त्म। अगले रोज़ की तैयारी शुरू हो जाती। वो भी बिना रूके।

ये जगह मेरी नहीं है मगर मैं जगह का हूँ इसलिए सब के सामने हूँ मुझे जगह में सुनाई देने वाली अवधारणाओं से संदेह हुआ। लगा की मानव की कल्पना और उसके बारे मे सोचने का प्रयास नाममात्र है। मैं खुद को बुद्धी जीवि कहता हूँ मगर मैंने ये कैसे मान लिया की मैं सही सोचता हूँ और जो दिखाई और सुनाई देता है वही सच होता है। मेरी सभी चेतना देने वाले मनबुद्धि, आत्मा, शरीर, इंद्रियों पर विषम चिन्ह सा लग गया पर सोच कहीं आकर नहीं रूकती वो निरंतर पर्वतों से बहती नदियों की तरह है। मैं ये फ़र्क करने बैठ गया की मैं जो अपने बीच स्पष्टिकरण कर रहा हूँ वो क्या है? क्या उससे बनी छवि को या शख़्सियत को मैं किन्ही हालातों मे स्वातंत्रता पूर्वक रख पाऊगाँ। मैं कहीं खो सा गया बेहोशी के इस आलम से बाहर आने के बाद मैंने देखा की जिसे मैं अभी-अभी कह रहा था की वास्तविक्ता को तोड़ना और अपने शरीर को छोड़कर कहीं दूर निकल जाना। मैनें भी तो अभी यही किया तो मुझमें और गोदाम में काम करने वालो में तो कोई फासला नहीं है। चलो ये तो पता चल ही गया।

उड़ते हुए कागजों, पन्नियों को देखकर लगाता है जैसे इस जगह में ही वसंत अभी आया है और अपने मस्त हवा के झोकों के साथ और वहाँ की प्रतेक चीज़ों सें हठखेलियाँ कर रहा हो।

प्रमोद का एक दोस्त उस रोज़ आया जब गोदाम मे खड़े टेम्पू में माल भरा जा रहा था। धूप ठीक सिर के उपर थी। पसीनों में लथ-पथ उस का शरीर जैसे हाफ रहा हो। उस के हाथों में एक झोला लगा हुआ था जिसमें उस के कुछ हफ्ते ठहरने के कपड़े थे और चेहरे पर नई जगह में आने से जन्मे उम्मीदों भरे भाव छलक रहे थे।

गाँव से वो शहर में कुछ आमदनी के लिए आया था। प्रमोद उसे देखकर खुश हुआ "अरे सोनू तू गाँव में सब ठीक तो है न।" और कैसी लगी दिल्ली? जो पहली बार आता है क्या उस से ऐसे ही सवाल होते हैं। खैर, प्रमोद के सवालों का भला वो एक बार में कैसे जबाव दे पाता। जरा चैन की साँस तो ले लेने दे फिर सारा किस्सा सुनाता हूँ। उसने सुस्ताते हुए अपनी सहमती जताई।

राकेश

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