Saturday, April 4, 2009

आदमी- क्या है आदमी

अपने साथी की ज़ुबान से सुनी दो लाइनें जिसमे मुझे अपनी ओर खींच लिया। ऐसा लगा मैं अपने को कई नज़रिये से देखने की चाह मे जी रहा हूँ। ये कुछ शब्द जो मुझमें तैर रहे हैं...

हर आदमी में होते हैं दो-चार आदमी
जिसको भी देखना, कई बार देखना
बेहताशा छवि बनाकर रहता है आदमी
दूसरों की नज़र में हैं, आम आदमी
ख़ुद की नज़र में हैं, जहांन आदमी
दूनियाँ जिसको कहती आदमी
वो आदमी कहता है की, सारी दूनियाँ आदमी

मुझे दिवाना कहकर बुलाते हैं आदमी
मैं कहता हूँ की, हर दिवाना है आदमी
जब कोई हाथ पसारता है तो
बाँटने के लिए खड़ा होता है आदमी

यूँ चंद पंक़्तियों में नहीं हो सकता बयाँ आदमी
ज़िन्दगी के हर सफ़र में शामिल है आदमी
कहते हैं शायर की बहुरूपिया है आदमी
अपनी गलियों में ख़ुद खोया है आदमी

ख़ुद से नाराज नहीं आदमी
ख़ुद से खुश है आदमी
अपनी ख़ुशबू को चारों तरफ बिखेरता है आदमी
जब दर्द होता है तो मुस्कुराता है आदमी

काँटों में फूलों की सेज बनाता है आदमी
इतनी सुहानी ज़िन्दगी जीता है आदमी
नहीं होता मायूस सदाबहार रहता है आदमी
किस्मत के लेखे को बदलता है आदमी

झील सी आँखों में तैरती कश्ती है आदमी
तारों को छूने की फिराक़ में रहता है आदमी
धरती की गोद में नवजातशीशू की तरह खेलता है आदमी
माँ बनके अपनी ममता दूसरों पर लूटाता है आदमी

किसी मनचले की अदा है आदमी
ख़ुदा के हाथों की बनाई मूरत है आदमी

मुसाफिर है आदमी, साथी है आदमी
दिया है आदमी, बाती है आदमी
जाता है आदमी, आता है आदमी

सम्बधों को निभाता है आदमी
दूसरों के आँसुओं को पीता है आदमी
ज़िन्दगी के सफ़र को मज़ा समझ कर जीता है आदमी

राकेश

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