Thursday, April 30, 2009

लव्ज़ों के अध्याय...

उनकी कही हर बात उनके दिल के बेहद करीब की है। वे उन्हे बताते हुए कभी भी थकते नहीं हैं। उनका हर लव्ज़ सोचा-विचारा महसूस होता है। हाँ कहते-कहते कभी वे इतना खो जाते हैं की वे ये तक भूल जाते हैं की अब वे क्या कहने जा रहे हैं। अपनी बातों के पिंजरे में वो कभी खुद ही फँस जाते हैं तो कभी सुनने वालों को फाँस लेते हैं।

यहाँ पर काफी लोग हैं जो उनके इस दिवानेपन के कायल हैं। तभी तो न दिन, न रात बस उनके सामने धूनीरमाए बैठे रहते हैं। सोचते है कि क्या पता कब वो बात निकल जाए जिनसे उनका कोई न कोई सम्बंध जरूर है। उसी के इंतजार में सभी अपने होठों को दबाये उनके हर लव्ज़ को सुनते हैं।

कोई चाहें जानता हो या न जानता हो कि वे यहाँ पर कैसे आए? खाली यही जानते थे कि वो ज़िन्दगी को और उनकी घटनाओं को बेहद करीब से देख चुके हैं। ये उनकी बातों से पता चलता होगा।

“मुझे थोड़ी नफ़रत है इस जगह से। इसने मुझे इतने सारे रास्ते दिए हैं अन्दर दाखिल होने के कि मैं यहाँ से बाहर का रास्ता भूला चुका हूँ। जब भी सोचता हूँ यहाँ से खिसकने की तभी यहाँ पर ज़्यादा रूकने का मन करता है। एक बार मेरे रिश्तेदार ने यहाँ पर मेरे सामने बैठकर मुझसे पूछा, “खालू तुम ज़िन्दा हो? सच बताना, तुम्हे लगता नहीं है कि तुम यहाँ पर ज़िन्दा नहीं हो? बताओ खालू।"

और वो ये वाहीयात सवाल करके वो हँसने भी लगा। पहले तो मुझे सभी की तरह उसके लव्ज़ बहुत ही बेहुदा लगे। हर शब्द उसकी हँसी की चादर में लिपटकर और भी नौंचने वाला लग रहा था। मैं सोच रहा था कि इस रिश्तेदारी का क्या सारा सिला मेरे ही नसीब के रास्ते होकर गुजरेगा। मैं उसे देखते हुए जब उसकी तरफ में झुका तो तब मुझे अहसास हुआ की ये वो चाहें किसी भी भाव से पूछ रहा हो मगर उसका मतलब मेरा दिल दुखाने का नहीं था। वो तो इस जगह के बारे में मुझसे पूछना चाह रहा था। मगर मैं छोटा सा आदमी इस जगह की क्या बातें बतलाता। मैंने खाली उसके सवाल का जवाब दिया न की उसके सवाल के पीछे छुपे उसके उस अहसास का जो वे यहाँ पर महसूस कर रहा था। वो मुझपर नज़र गढ़ाये था और मैं उसपर। थोड़ी देर तक मैं सोचता रहा की क्या कहूँ? मगर कुछ देर की चुप्पी के बाद में मैंने जवाब दे ही डाला।

मैं ज़िन्दा हूँ या मैं ज़िन्दा कैसे हूँ इसका मुझपर कोई पुख़्ता जवाब तो नहीं है मगर हाँ कभी-कभी मरने का खौफ़ ही मुझे ज़िन्दा रहने का अहसास करवाता है। दिन में हो, हफ़्ते में हो या सालों में मगर जब मरने से डर लगता है तब अहसास होता है कि हाँ भई मैं तो ज़िन्दा हूँ।"

उनकी इन्ही बातों का या छोटी-छोटी कहानियों में बसे चेहरो का ही असर है जो उनके सामने की सीट कभी खाली या खमोश नहीं रहती। इन्ही किस्सों में कुछ न कुछ तलाशने को उनके सामने की जगह हमेशा भरी रहती है। बातों की कसक हो या टकराव की आहुती सभी एक समान होकर अपने पैमाने तैयार करती है। ये कोई सीख या प्रवचन नहीं था। जो लोग उनसे लेकर खुद पर आज़माते होगें। ये वो पहलू था जिसे समझना तो बेहद बाद की बात है मगर उससे पहले था उस पहलू का हिस्सेदार बनना।

उनकी ज़ुबान से अनगिनत वाक्या न जाने कितने वक़्तों में बाहर आकर तैर रहे होगें। लेकिन उनके समंदर में अभी वाक्यों और शख़्सों की कोई कमी नहीं थी। हर वक़्त गोते लगाये जा सकते थे। बिना टोके-टोके।

वो हर शुभा यहाँ पर किसी को तलाशते रहे हैं। मगर वो कभी मिल नहीं पाया। उनका यहाँ पर आना ही उसको तलाशते हुए आना था। लेकिन वो परवान ना चड़ सका। वो काम पर से निकाले गए थे। ये कहके की आपको दिखता है नहीं तो आप ये काम नहीं कर सकते। खाम्खा में कुछ नुक्सान कर दोगे।

ये शब्द उनके कलेजे पर छप गए थे। वो कितनी ही बार उनको भूला देने का नाटक करे मगर ये हैं कि उनके दिलों-दिमाग से हटते ही नहीं। वो नफ़रत करते हैं कभी-कभी अपने दिल और दिमाग दोनों से। बाकि कितने लोग उनके सामने से गुज़रें हैं जिन्हे किसी भी बात का ठेस नहीं पँहुचता। वो वक़्त के फिसलने को उन सभी बातों का सीख का हिस्सा मानते हैं। जो हो गया पानी मारो और कहीं कुछ छोड़कर दोबारा से दौड़ पड़ते हैं किसी नई दौड़ में। वे अभी तक सिक्के की तरह जमीन पर खड़े हैं किसी एक तरफ में पलटते ही नहीं। इसी बात का सदा अफसोस रहेगा उन्हे।

वे कहते हैं, “रास्ते तो आपको हमेशा अपनी ओर खींचते हैं और वादा भी करते हैं कि दूसरी ओर आपकी मंजिल है। मगर जब कभी एक ही रास्ता ज़िन्दगी भर के लिए पैरों में चिपक जाए तो कितना ही जोर लगा लो मगर वो कभी आपको आगे नहीं धकेलता। मेरे पाँव भी किसी एक रास्ते से चिपक गए हैं। जिसके हमराजों ने पाँव की पकड़ को न मंजूर कर दिया है। अब तो मंजूरी पा जाने के बाद ही कहीं चलेगें नहीं तो वो भरोसा नहीं आ पायेगा दौड़ने का।"

वो दरियागंज की किसी सुनार की दुकान में सोने का हार बनाने का काम करते थे। सोने की नक्कासी, उसमे नग जड़ना और खूबसूरत हार के डिजाइन बनाना उनका शौक भी था और पैशा भी। एक बार दिल्ली आते समय एक शख़्स से सफ़र में मुलाकात हुई। पूरी रात के सफ़र में ढेहरों बातें दोनों दरमियाँ हुई। उसी बातों में ये रिश्ता इतना मजबूत हुआ की उन्हे वो शख़्स यहाँ दिरयागंज ले आया। उस शख़्स की यहाँ पर ज्वैलरी की दुकान थी और इन्हे सोने का काम करने का बड़ा शौक था। तो बस, दोनों की खूब बनी और गुज़री।

सालों गुज़र जाने के बाद मे काम और शौक दोनों एक दूसरे के आड़े आ गए। जिससे रिश्ता किसी और चादर में लिपट गया। ये बदलाव तो आना ही था वाज़िब सी बात है। उनका तो यही मानना था। पल दो पल के लिए यहाँ के हिस्सेदार बनने के चश्के ने इन रास्तों का मुसाफिर ही बना दिया और वो बड़े चाव से इन राहों में खो जाने को तैयार हो गए।

इन शब्दों के बाद में उन्होनें अपने शौक को अपने सबसे ज़्यादा नज़दीक किया और काम के पन्नों पर हस्ताक्षर करके उसका अध्याय ख़त्म कर दिया। अब तो वो जैसे सारे काम निबटाकर यहाँ पर मौज़ूद हैं। बस, तलाश है बाहर के रास्ते की लेकिन अगर वो रास्ता मिल भी गया तो ये तय नहीं है कि वे बाहर जायेगे भी या नहीं।

लख्मी

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