Thursday, April 30, 2009

गोदाम में हैंडफोन..

आज समय कल्पनाओ के पंख लगाकर उड़ रहा था। आँख के अंदर हवा में घुले धूल के कण घुस जाते। फेरी मार कर आने वाले सभी लोग अपना माल चुनकर उसे अलग-अलग व्यवस्थित कर रहे थे। निरंतर आवाज़ें बेखौफ उस जगह के चप्पे-चप्पे से उठ कर आ रही थी। किसी ने एक कदम समीप आकर पूछा " आप कौन हो?”

उसके सुर्ख चेहरे पर मटमेले निशान पड़े थे। माथा काले ग्रीस से सना हुआ था। वो आँखों में ढेरों सवाल लेकर खड़ा था। उसके शरीर को देखकर डर सा लग रहा था जैसे अजीब सा किस्सा घट गया हो। वो काली पतलून पहने हुए था और ऊपर के शरीर पर कुछ भी नहीं पहना था। उसकी छाती पर रीछ की तरह बड़े-बड़े बाल उगे हुए थे। हाथों मे सरिये की मुड़ी हुई नौंक वाला कोई औज़ार था। जैसे ही उस की शारीरिक तरंगो ने मुझे अपनी तरफ खिचना शुरू किया कोई अधूरा सा ख़्याल पूरा होने लगा। इस ख़्याल की उर्वकता ने मुझे कई आईनों के आगे लाकर खड़ा कर दिया। उसके देखने को मैं खुदा की बंदगी समझकर मौन अवस्था खड़ा रहा।

उसके सवाल को सवाल ही समझ कर मैंने इस मौन अवस्था से बाहर आकर उसे जबाब देने की कोशिश की पर उससे पहले मेरे मन में फिर से एक ख़्याल करवटें लेने लगा की अगर मैं उसको सच्चाई बता दूँगा तो शायद ये मुझपर भड़क जाये या मुझपर शक़ करने लगे।

हो सकता है कि वो मुझे गोदाम से धक्के देकर निकाल बाहर कर दें या ये भी हो सकता की वो मेरे साथ हाथापाई पर उतर आये। इस तरह से मेरे चारों तरफ उलझन भरे मुस्किलात आने लगे और डर साया बन कर मेरी सोच पर हावी होने लगा।

मैं तसल्ली पूर्वक उस शख़्स को अधूरा सा जबाव देकर आगे बड़ा। मुझे पता था की वो मेरे जबाव से संतुष्ट नहीं हुआ है। मगर फिर भी खुद को वहाँ से ले कर चला आया।
मेरे कुछ कदमों के चलते ही अब वो चेहरा मेरी आँखों से गायब हो चुका था पर उससे मिलने का असर अभी कुछ-कुछ बाकी बचा था। चन्द कदमों को रखने के बाद अपने चेहरे पर थोड़ी खिलखिलाहट लाकर रास्ते पर पड़े कागज़ के खाली पैकेट को देखता चलता गया।

मेरे सामने कुर्सी थी जिसे देखकर लग रहा था कि वो अपने दिनों के अन्तिम पड़ाव में जी रही है। उस पर जो साहब पाल्ती मारकर बैठे थे। उन्हे देखकर लग रहा था की कोई तन्दूर पर बैठा हो। उन साहब के आगे-पीछे हिलने से कुर्सी की चर्माराती आवाज़ आती। जैसे कुर्सी कोई गाना सा गा रही हो। कागजों और प्लासटिक के मोटे-मोटे गठ्ठरों को एक के ऊपर एक करके रखा हुआ था।

गोदाम का तामझाम समेटा जा रहा था। सोचा इस कुर्सी पर बैठे नौजवान से कुछ पूँछू पर हिम्मत नहीं कर पा रहा था। मेरे दिंमाग मे तो पहले सें ही हुए सवालों की मोहर लग चूकी थी। मैं फिर भी खुद को तसल्ली देने लगा। एक कोशिश के बाद खुद को विश्वास के घेरे में लेकर कुर्सी पर बैठे नौजावन से मैनें खड़े-खड़े पूछा, "जरा सुनिये आप का क्या नाम है?”

उसने मेरी परछाई को अपने शरीर पर पड़ता देखकर मेरी तरफ सिर उठाया फिर वापस कर लिया, "जरा सुनिये भाई साहब, मैं आप से ही कुछ पूछ रहा हूँ"
तीसरी बार फिर मैंने उन्हे पुकारा, "जरा सुन लिजिये"

उसके कानों पर जूं तक न रेगीं। कमाल है। जब मैनें गर्दन को जरा घुमाकर नीचे देखा तो। उसने अपनी हथेलियों के बीच में एक वॉल्कमैन दबा रखा था। जिसका हैंडफोन उसके दोंनो कनपट्टियों पर लगा था।

गोदाम मे जहाँ-तहाँ सें दौड़-दौड़ कर आवाजें हम तक आ रही थी जिसकी गूंजों से सारा आलम किसी मेले से क्या कम था जो ये साहब इतनी जगहों से आते फिल्मी गानों और शेहनाइयों के बजते शोर में गोदाम में हैंडफोन लगाकर बैठे थे।

इस शौर ने मुझे अजीब सी दुनिया दे दी जिसमें मुझे लगता की मैं किसी को नहीं दिख रहा किसी ऊँचाई पर कायम हूँ। जहाँ चीजें कभी दूर दिखती तो कभी नज़दीक दिखती है। हवा में उडती टिड्डियों और मक्खियों की भनभनाती आवाज़ भी अब मेरे कान साफ-साफ सुन सकते थे।

सोचा की इन सारी आव़ाज़ों को एक धागे में पीरो लूँ। लेकिन हक़ीकत का बोध बड़ा तकलीफ दह होता है। इस हक़ीकत को क्या समझूँ? जो न मुकम्मल है न अधूरी फिर जो कभी-कभी इतना जोर से चुभती है की दर्द बर्दाश्त के बाहर हो जाता है। गोदाम में जैसे चीजें अपने आपको तैयार कर रही थी। सारी तोड़-मारोड़ के बाद खामोशी से वक़्त की हर चुनौती का जबाब देती। इतनी करूणा बहुत कम देखने को मिलती है। कागजों के चट्टो को वो हाथ कस-कस कर बाँधते फिर दूसरे ही पल बाजू में रखी एक साथ मिली चीजों को छाटने लगतें।

ये देखना बड़ा ही शुकून भरा होता जब टीवी पर चलते फिल्मी डायलॉगबाज़ी और बोलीवुड के सितारों की जायके दार ख़बरो मे जीते हुए वक़्त जैसे पतली गली से होकर निकल जाता पर ऐसे में उन साहब का ध्यान तो अपने वॉकमैन पर चलते गानों में था।दोनो स्पीकरों वो बडे मज़े से सुन रहा था। पास में से आती कोई अज़ीब सी गन्द जो हवा मे अपने साथ मीठा सा स्वाद लेकर आती। बाँस पर पड़ी छन्नीदार चादर से चौखट को ढक रखा था। जो अन्दर-बहार हवा को बेरोक-टोक आने-जाने देता।

आज गोदाम अपने एक और अन्दाज को देखा रहा था जिसमें इश्क नर्म-नर्म अहसासों से गोदाम में सभी काम करने वालों को सींच रहा था। शायद आज इनके लिए बिना इस माहौल के काम करना मुश्किल हो। शरीर और मन को आराम देने वाली महफिलों में मन करता है की यहाँ ठहर जाऊँ। मैं तो यहाँ का रहने वाला नहीं तो भला ठहरने का क्या मतलब पर खानाबदोशो की का तो यही अदा होती है। जहाँ मन किया वहाँ ढेरा डाल लिया और फिर लम्हों को एक नई जगह में डाल कर नया चेहरा बना कर जीना शुरू किया। मगर मैं खानाबदोश भी नहीं हूँ हाँ एक फ़कीर जो जगह-जगह अपने लिए कुछ माँग लेता है और बदले में दूआएँ दे देता है। पिछले जन्मों के कर्मकाण्डो के कारण मैं ये भी न बन सका। पता नहीं किस करनी से मैं सब मिठासो से वंचित रहा।

ये भी नहीं हूँ जो जीवन मे तमाशाही मंज़र बनाकर लोगा मन जीत लेता है। मैं कुछ-कुछ मिला सा हूँ सब में से जरा-जरा सा लेकर बना हूँ। वैसे कुछ मुकम्मल नहीं है। फिर भी मान लेता हूँ की जो हैं वही सब कुछ नहीं हैं मगर फिर भी वही सब कुछ है।

राकेश

No comments: