Thursday, April 30, 2009

बहुत दिनों से सोच रहा था...

बहुत दिनों से सोच रहा था की बस्ती में जाने के बाद मुझे ऐसा क्यों लगता है की लोग अपनी जगह को बनाते हुए एक तरह का सफ़र बना रहे होते हैं जिसमें तमाम जरूरतें, अपेक्षायें और भरोसे के होते हुए भी कुछ हाथ से फिसल जाने का डर साथ रहता है।

किसी तरह हमारी इच्छा शक़्ती हमें इस फैसलों के दोराहों पर लाकर खड़ा कर देती हैं जिसमें एक झटके का फैसला होता है, आर या पार पर सब कुछ होने के बावज़ूद भी बाकी सब चलता रहता है। किसी के जगह में आने-जाने से किसी को क्या फ़र्क पड़ता है? लेकिन जगह में जब मौज़ूदगी का शौर और सन्नाटा होता है तो वो जगह अपने आपमे गाढ़ी छवि बना लेती है। मौज़ूदगी का ये सन्नाटा कैसा है? जिसकी नज़र समय को पकड़ने के लिए कभी-कभी बेकाबू हो जाती है। चीज़ों और समय के अन्नत दास्तानों से भरी उस जगह के भीतर कितने ही जाने-अन्जाने चेहरों का झुण्ड बसा होता है।

उसने एक लम्हे के लिए मेरे चेहरे की तरफ देखा फिर मुँह पलट लिया। उसकी आँखें मानो मुझे बिना जाने-पहचाने ही अपनी गिरफ्त में लेने को थी। वो गिरफ्त जिससे कभी भी मैं आज़ाद नहीं हो पाता।

आसमान साफ नज़र आ रहा था। धूप की हल्की चमक ठीक उसके गालों और होठों पर पड़ रही थी। मैं उसके चेहरें को अब खुद मे महसूस कर रहा था की उसने फौरन चाय-पानी के लिए गुज़ारिश करनी शुरू कर दी। मैंने तो दोस्त समझकर हाथ मिलाया था पर मुझे क्या मालूम था की दोस्त की शक्ल में हम मेहमान बन जायेगें। वो भी कुछ ही वक़्त के लिए।

वो दीवार लग रही थी जिसमें मैं आगे रास्ता बन्द समझ कर पीछे लौट रहा था। यकायक मेरे साथ चल रहे साथी ने मुझे बताया की वैसा नहीं है जैसा तुम सोच रहे हो। वहाँ से जाने का रास्ता है- गोदाम जाने का। अपनी आँखों को मिड़कर हम और वो आगे बड़े - बड़े और आगे बड़े। दीवार तक पँहुचने से पहले ही मेरे मन में आशकाएँ उछल-कूद करने लगी। मूंडेरियों के दूसरी तरफ हमारे देखने पर मुझे कुछ हूआ जैसे कोई छू गया हूँ। सवाल या कोई और अजब सा पल।

शायद ये मेरे साथी ने नहीं देखा जो मैंने देखा पर ये कैसे हुआ की मैंने देखा और बाजू में चल रहे मेरे साथी ने नहीं देखा। शायद वो किसी और ख़्याल में डूबा हो। जब मेरी नज़र वहाँ पड़ी तो मूंडेरियों की पीछे की दीवार पर अधबनी कुर्सी पर बैठा वो सिर को धीरे से नीचे जाने देता तो कभी नींद के टूटने पर चौंकर आँखें खोल लेता। उसके चारों तरफ काफी शौर था। मगर फिर भी वो नजाने अपने को कैसे आराम दे लेता। बड़ी बेफिक्री से वो अपने दोनों घूटनों को मौड़कर शरीर को एक विशीष्ट मुद्रा में साधे हुए था।

उसने बड़ा भारी सा मजबूत बोरी का कट्टा अपनी कमर टेड़ी करके डाला हुआ था। लग रहा था की वो जैसे अभी-अभी अपना मुँह धोकर आ रहा हो। काली पन्नी लाल पन्नी में चीज़ों को उसने बड़ी मसक्कत से बाँधा हुआ था। हाथों में मिट्टी के चन्द कण बाकी रह गए थे। उसके चेहरे की मुस्कूराहट किसी अमीबा शैवाल की तरह कभी टूटती तो क्भी खुद ही जुडती नज़र आती।


ये बड़ा तंग रास्ता था....

ये बड़ा तंग रास्ता था जो यूँ समझिये की रास्ते के पास में जितनी भी चीज़ों को चून्ने वाले से लेकर, चीज़ों को यहाँ छाँटने वाले फिर तराजू पर चढ़ाने वाले और गोदाम से टम्पू में सारा माल भेजने वाले मालिको समेत सबके चेहरे ने एक अज़ीब सा नक़ाब पहना हुआ था जिसको कुछ क्षणों में समझने की मुझमें ताकत नहीं थी। ये मेरी अवधारणा थी क्या या मेरे मन का असपष्ट विचार। पता नहीं। सब कुछ जान कर भी मैं अंजानों की तरह वहाँ बैठ गया।


सिर पर मँड़राने वाली मूहार मक्खियों के जैसे अधबने विचारों का भिन-भिनाना अब बंद हो गया। क्योंकि आँखों को अब कुछ और ही भा गया था। गोदाम में आज माल ही माल दिखाई दे रहा था। पहले के दिनों आज कुछ ज़्यादा था।ये हफ़्ते की शुरूआत का दिन था। लोग सुबह से ही तरह-तरह की चीज़ों को ज़्यादा से ज़्यादा लाना शुरू कर देते हैं। वो चीज़ें जो एक या दो बार मे इस्तेमाल करके फैंक दी जाती है।

गोदाम में बच्चे भी खेल रहे थे। उनकी माँए घर की चौखटों पर बैठी अपने पती के काम में हाथ बटा रही थी। बच्चे अपनी प्यारी सी मुस्कान देते हुए बोरे में भरी चीज़ों पर चढ़कर इतने उत्तेजित हो रहे थे। जीवन की असम्भवता से जूझकर मुस्कुराते फिर खेल में लग जाते।

राकेश

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