Saturday, March 28, 2009

अपने से पार के रास्ते ...

वो बीते हुए को लाना जानती हैं ...
उनके हाथों के कागज़ात बहुत कम हैं वे जानती हैं। वे कागज़ात वे नहीं बता पायेगें जो कोई सुनने आ रहा है। उन कागज़ातों में बोल बहुत पुछल्ले हैं। शायद कोई सुने या न सुने। उनके कागज़ातों में पुराने जमाने की कहावतों की तरह जान है तो नये जमाने के सबूत नहीं है। ये वे जानती हैं, बखूबी कोई उन्हे बतला कर चला गया है कि आपके कागज़ातों मे समय गूँगा है। लेकिन वे कहती है कि समय को सुनना है या कागज़ों मे ज़ुबान फूँकनी है? ये सवाल उनके दिलो -दिमाग मे घर कर गया है। मगर ये दावेदारियाँ उनकी ख़ुद की ज़ुबान के तले नाज़ुक ही हैं। उनके ख़ुद की ज़ुबान में कोई भरपूर सहर्ष उदाहरण हैं जो हर समय के स्वागत से बने हैं। जिसमे उनके पिता से लेकर पति तक का सफ़र बयाँ होता है। बचपन के खेलों मे काम करने की महक है तो जवानी के वे पल है जिसमे कुछ जिम्मेदारियाँ निभाने की कोशिशें शामिल हैं।

वे ये भी जानती हैं कि ये सारी गाथाएँ शायद आज झूठी साबित हो जायेगीं। सुनाने से उनकी बेज़ती होने के आसार हैं। हर बात में किसी बनने के अहसास शामिल होने के बाद भी, ख़ुद को तैयार करने के बाद भी, जगह की ख़ुदाई से लेकर उसके भराव तक के मुकम्बलित हथियार बन जाने के बाद भी, नया चेहरा बन जाने के बाद भी, अकेले न रहकर परिवार बनाने के बाद भी। इन कहानियों-बातों मे सब कुछ झौंक देने के बाद भी इनका वज़ूद हल्का रह जाना है। चाहें सारा शरीर शब्दों, बातों से रच दो लेकिन वे सब बेमायने हो जाना है। क्योंकि कागज़ातों मे बोल नहीं हैं। वे जानती हैं। मगर कहती हैं, "कागज़ातों में ज़ुबान नहीं है तो क्या मेरे में भी नहीं है कोई ज़ुबान? मेरे पिता और पती दोनों चुप हो गए लेकिन मैं तो ज़िन्दा हूँ बोल सकती हूँ। जब मैं सुन सकती हूँ तो"

जानने की इच्छा से गुज़रना...
वो अपने मे ही बातें करती हैं और ये उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। कितनी जल्दी वे घर से बाहर जा सकती हैं उसकी तैयारी मे रही हैं। पिछले चार सालों के दरमियाँ उनका बाहर बड़ा हुआ है।

देखा जाये तो वे पिछले चार सालों में ही नज़र आई हैं। नहीं तो वे कहाँ और क्या जानती है वे किसी को नहीं मालुम था। उनकी तालीम उनकी ख़ुद की चीज़ों को जानने की इच्छा से बनी है। चाहें कोई भी काम अपने मतलब का हो या न हो मगर वे उस काम मे घूस जाती हैं। क्या पता वे उनके अलावा किन्ही औरों के काम आ जाये जिनको वे जानती है या नहीं भी जानती। इससे क्या फर्क पड़ने वाला है। बस, सरकारी कागज़ात कैसे बनवाने हैं?, क्यों बनवाने हैं और ये किस काम मे आयेगें ये समझने की चाहत में वे हर रोज़ फिरती हैं। सरकारी महकमों की जानकारी लेना, सरकारी कामों के बारे मे जानना और क्या नया आया है? वे किसके काम मे आ सकता है? और किसके लिए वे जरूरी होगा उसको सोचकर वे इन जगहों मे दाखिल हो जाती हैं। उनकी तालीम यही है जो उन्हे उनके यहाँ पर, आसपास में जीवित रखती है।


उनको देखना है तो यहाँ आओ ...
वे कभी अपने घर मे नहीं दिखेगीं। बस्ती मे कोई भी सार्वजनिक काम हो रहा हो वे वहीं पर नज़र आती हैं। अपने बच्चों का हाथ थामें ‌वे उस माहौल मे हाज़िर रहती हैं। करने को तो कुछ नहीं करती लेकिन उन्हे इस तरह के काम में खड़े रहने मे मज़ा आता है। कहती हैं, "घर मे रूखे-रूखे बैठे रहने से क्या होगा ? इससे सही तो कहीं बाहर जाकर देखें तो सही की आसपास हो क्या रहा है। क्या पता हमारे लिए ही उसमे कुछ हो।"

बस्ती मे किसी काम का या अन्य माहौल कोई कब बना था उनसे जाना सकता है। चाहें वे गर्भवती महिलाओ के लिए दाल-मोठ, चाट या पोस्टिक चीज़ें बाँटने का माहौल हो या पोलियों का टीका लगवाने का काम, नर्सरी वालों का खिचड़ी बाँरना हो या फिर कब बस्ती के बारे मे बोला जा रहा है वे हमेशा वहाँ पर खड़ी रहती हैं। लेकिन आज कह रही थी, "हम तो इतनी बार सरकारी कामों मे गए मगर यही पता न चला की हमें कुछ बनवाना भी है।"



उनके हाथों के इशारों मे है वो सब......
जल जाना किसी के बस का नहीं है। लेकिन फिर भी ज़िन्दगी का आधे से ज़्यादा समय तो जल फुँक गया। हर टुक़डा जैसे आज सहेजा हुआ है पहले भी वे बहुत सजोंकर रख गया था। इस पहले और आज के घेरे मे ये जगह आई है वे टुकड़े नहीं। जिनको ये सोचकर रख गया है कि जगह को निलंबित होने से रोका जायेगा। ये यादें समाये रखे हैं। वे यादें जो भुलाई नहीं जा सकती। वे यादें जिन्हे कोसा भी जा सकता है कभी दुख मे तो कभी खुशी में। वे यादें जिनसे परिवार का अहसास होता है। वे यादें जिनके जरिये नैतिक गुटों में पहचान बनाई जा सकती हैं। यादों का आकार क्या है वे जानना किसी के मतलब नहीं होता होगा। लेकिन आज मतलब किन्ही के लिए बेहद मायने रखता है। एक फासला जो मिटने लगा है। इस फासले में कई चेहरे ज़िन्दा है।

आधे से ज़्यादा जले चेहरे को उनके हाथ अपनी छाती पर रखकर ये समझा देते की इन पक गए धूँए की आड़ मे कौन बसा है। हर कागज़ के साथ उनके हाथ एक दूरी तय करने लग जाते और हर दूरी उनकी छाती से होकर कहीं किसी कोने में चली जाती। ये कोना उनके घर के अन्दर नहीं जाता था। कभी वो बस्ती की तरफ रुख करता तो कभी आसमान की तरफ। पर उसी नक्शे मे सारे समाये थे। जिनमें एक वे भी शामिल थी।

लख्मी

No comments: