निगाह कभी जमीन से ऊपर नहीं उठती। ऐसा लगता है जैसे किसी के पैरों के निशानों पर अपने पाँव रखकर अपने लिए राह तलाशी जा रही है। दरवाज़े से हमेशा आवाज़ों का काफ़िला सा निकलता है। अभी जैसे कोई कुछ ही पल यहाँ पर ठहरा है। दिल और दिमाग का खेल भी हो सकता है पर ये सच है।
न तो इसमें दाखिल होने का रास्ता देखने की कोशिश रहती है किसी की और न ही इससे बाहर निकलते छोर को समझने की। यहाँ के हर रास्ते जैसे किसी के पैरों के ही निशान हैं। हर रास्ते में हजारों लोगों को महसूस करने की आज़ादी है। कोई कब और कैसे आपके काँधों से टकरा जाये इसका अंदाज़ा भी लगाना न के बराबर हो। पर जैसे अब तक तो पैरों का रिश्ता यहाँ के हर मोड़, हर ऊँच-नीच, हर चौख़ट और कौने से हो गया है। ये हुआ सिर्फ़ सात ही दिनों में।
रास्ता जो कहीं का इशारा देता है तो कहीं के इशारों को चित्रों में बदल देता है, एक रास्ता ये भी...
दिनॉक- 13-03-2009, समय- दोपहर 1:00 बजे
लख्मी
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