दूसरा दिन- 27 फरवरी 2009, दिन शुक्रवार।
सर्वे की टीम ने ठेका लिया एलएनजेपी बस्ती के एक हजार से भी ज़्यादा घरों को पंजीकृत करने का। सर्वे करने आये ये आठ लोग तीन टीमों मे तब्दील हो गए। जिनमे से एक स्लम का शख़्स होता और दो मोलाना आज़ाद इंस्टिटूड के बन्दे। जैसे ही सर्वे की टीम बस्ती मे उतरी तो खेल शुरू हो गया बस्ती के स्थानीये नेताओ का, इस खेल मे ये जरूरी नहीं था की कितनों को मकान मिलेगें या ये नहीं था कि कैसे ये साबित किया जाये कि ये यहाँ इस बस्ती मे कितने समय से हैं। बस, उस खेल में था अपना रूतबा दिखाना। "चिंता मत किजिये हम हैं ना!"
इस ज़ुमले को कहकर सर्वे को संतुष्टिकजनक बनाया जा रहा है। मगर सरकारी सर्वे में स्थानीय नेताओ का क्या काम? एक जानकारी लेने वाला, दूसरा जानकारी देने वाला समझ मे आता है लेकिन ये तीसरा शख़्स क्यों? अपना-अपना इलाका बताने और वहाँ पर अपना रूतबा दिखाने चले आते। सर्वे टीम को इससे कोई आपत्ती नहीं।
एलएनजेपी मे ये खेल पहली बार देखने को मिला। एक ही शख़्स जो यहाँ का स्थानीये नेता है। स्थानीय नेता यानि वो शख़्स जिसे सरकार ने नेता नहीं बनाया ये वे लोग होते हैं जो खुद से खड़े हो जाते हैं सौ लोगों के बीच में और लोगों को कैसे न कैसे ये विश्वास दिला देते हैं, आपके सारे काम हम करवा देगें। उस सौ मे एक आदमी, जिसके पास मे सौ घरों के सारे कागज़ात होते हैं। वे साबित करने चला आता है लोगों को मकान दिलवाने।
आज 120 घरों का सर्वे हुआ। सर्वे टीम सुबह ग्यारह बजे से सर्वे करने उतरती और शाम के चार बजे तक ये काम होता। जिसमे उनका लंच भी शामिल होता। हर घर के सामने ये दो मिनट ही रुकते। उसी मे ये फैसला किया जाता कि कौन कब से है? और कितना दावेदार है? उस दो मिनट में यहाँ बसे लोगों के 35 से 36 साल यूहीं खदेड़ दिये जाते। कोई भी अपनी कहानी नहीं सुना सकता। जो है वो दिखाओ और जो नहीं है तो साइड मे हो जाओ। दो मिनट फैसला करते हर दिन और रात का, हर कहानी और ज़्ज़बात का। बल्की ये भी तय करते की मुखिया कहाँ है?, अब कौन है?, आप कौन है? और अगर दरवाजे पर कोई नहीं दिखा तो दरवाजे पर ही लिखा जाता "लॉक"। उसके साथ-साथ ये नियम के बेहद पक्के होते हैं, एक बार जिसके घर से अगले वाले घर पर चले जाते हैं तो पीछे मुड़कर नहीं देखते। फिर चाहे वे उस दो ही मिमट के ख़त्म होते ही आ जाए। अब तो हो गया फैसला।
एक औरत मिली, वे कह रही थी, "मैं नमाज़ पढ़ने मज़िद गई थी तभी वो घर पर आये, जब मैं वापस आई तो मेरी पड़ोसन ने बताया कि तुम्हारे घर पर सर्वे वाले आये थे। मैंने उनसे खूब दरख़्याज़ करती रही लेकिन मेरी नहीं सुनी उन्होनें और देखो मेरे दरवाजे पर ये लिख (लॉक) गए।"
ऐसा ही सर्वे पिछले दो साल पहले यमूनापुस्ता मे बसे नंगलामाची मे भी हुआ था। मगर यहाँ का खेल कुछ समझ मे नहीं आ रहा है। यहाँ पर बस्ती लोगों से बात करने पर लगा जैसे किसी को पता ही नहीं है कि सर्वे वालों को कौन से समय के कागज़ात दिखाने हैं? सर्वे टीम भी लोगों से जैसे नये बन कागज़ात माँग रही है। लेकिन कुछ कहते कि हमने तो पुराने दिखाये हैं। दस लोग अगर मिलते तो उनमे से 2 ही कहते कि हमारे तो पुराने कागज़ात लिए हैं। ये खेल क्या चल रहा है वे समझना अभी के लिए तो मुश्किल सा महसूस हो रहा है।
एलएनजेपी बस्ती में हर घर के पास मे बीपी सिंह के समय का बनाया गया 'बिल्ला-टोकन सन 1981 का, आईकार्ड सन 1990 का, राशनकार्ड सन 1982 से बनना चालू हुआ, वोटर आईकार्ड सन 1994 का है। लगभग सभी के पास ये मौज़ूद है।
ये बस्ती कई बार उजड़ी है। कभी आग से तो कभी किसी और वज़ह से। कईओ के कागज़ात उसमे चले हैं लेकिन फिर भी वे कुछ संभाल पाये हैं। राशनकार्ड अगर हम देखते हैं तो वे तो हर 5 साल मे बनते हैं जिनपर जारी करने की तारीख हर बार बदल जाती है। वो ये कैसे साबित करता है कि जिस घर का वह बन रहा है वो उस जगह मे कब से है? नये राशनकार्ड बनाने के सिलसिले मे पुराना हमेशा जमा किया जाता है, कोई अगर ज्ञान रखता है तो पुराने की फोटोकॉपी करवा लेता है तो कोई नहीं। तो क्या जिसमे नहीं करवाई वो उस जगह मे नया हो गया?
कई तरह के सवालों के बीच मे चल रहा है ये सर्वे। आज के बाद मे दो दिन की छुट्टी है। सोमवार को के इन्तजार में दोबारा से तैयार होगी ये बस्ती।
लख्मी
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