28 फरवरी 2009, सुबह के ग्यारह बजे।
तीसरा दिन...
पिछले दो दिनों मे यहाँ बस्ती मे क्या हुआ है उसका प्रभाव हर घर, हर परिवार, हर कोने और सामुहिक जगहों मे फैल गया है। यहाँ अब तक हर कोई ये तय करने की जद्दोजहद में है कि वे कैसे अपना वे वज़ूद दिखा सके जिसमें बस्ती की उस भूमिका का नज़ारा हो सके जो उस घर परिवार ने पिछले कई सालों मे बनाई है।
चप्पे-चप्पे में हर कोई अपने घर के वो कागज़ात निकाल लाए हैं जो अभी तक न जाने घर के किस गहरे कोने मे दफ़न थे। इस हलचल मे वे कोने दोबारा से उधेड़ दिए गए हैं। कहीं पुराने से पुराना आईकार्ड, सबसे पुराने राशनकार्ड की प्रतिलिपी, अपने सबसे बड़े बच्चे की जन्मपत्री, मृत्यु का सार्टिविकेट, सबसे पुरानी घर की तस्वीर, घर का सबसे पहला बिजली का बिल, बैंक की कॉपी, एलआईसी और यहाँ तक की लोगों ने पास ही के अस्पताल के वे बिल वे रसीदे भी निकालकर रख ली हैं जिससे ये आसानी से साबित हो जायेगा की वे यहाँ इस बस्ती मे कब से रह रहे हैं। कितने कागज़ात तो ऐसे भी थे जिनपर तारीखें तक मिट गई हैं।
बस्ती का कोई न कोई किसी न किसी को पकड़ता और उन्हे अपने उन सारे कागज़ातों को दिखाकर अपने होने की पुस्टी करता। किसी को दिखाना जैसे सभी के लिए आज की तारीक मे बेहद जरूरी हो गया है। आज तो जैसे हर गली के कोने पर घरों के कागज़ातों की बातें बिखरी पड़ी हैं। चार लोगों मे अगर एक भी समझदार होता तो सभी के कागज़ों को व्यवस्थित कर देता। कौन सा लगाना है?, कौन सा दिखाना है? और कौन सा पहले दिखाना है?
आज जैसे लोग एक-दूसरे को खोज रहे हैं। कोई तो ऐसा जो उन्हे इस दुविधा से पार पाने का तरीका समझा सके। जहाँ पर भीड़ लगी देखते वहीं पर जाकर अपने घर के कागज़ों की थैली खोल देते।
आज यहाँ बस्ती मे छोटे-छोटे समुहों में कुछ लोग, बस्ती के बाकी घरों को ये सब कुछ समझाने की कोशिशें कर रहे हैं। कहीं पर महिलाओ को बताया जा रहा है तो कहीं पर आदमियों को। छोटे-छोटे समुह में ये बातचीत के माहौल बनाये जा रहे हैं। आज की तारीख मे लोगों को ये पूर्ण कर लेना था कि कल जब सर्वे वाले हमारे घर पर आये तो हमें क्या दिखाना है।
जहाँ पर भी ये माहौल बनने की लोग सुनते तो चले आते अपने-अपने दस्तावेज़ों को संभाले। इनमे ज़्यादातर महिलाएँ ही हैं। पहले तो काफी देर तक खड़े होकर देखती कि क्या समझाया जा रहा है उसके बाद मे अपने कागज़ों को दिखाती। उसके साथ-साथ एक नई दिक्कत भी। यहाँ पर को माज़रा था वो पहले कभी नहीं सुना था। सारे खेल ही एक-दूसरे से ज़ुदा हैं।
एक बुर्ज़ुग महिला, जिनकी उम्र लगभग 67 साल की होगी। वो सीधा माहौल मे दाखिल हुई। पहले तो कुछ भी उनके समझ मे नहीं आ रहा था। वे थोड़ी देर तक वहीं पर ख़ामोश खड़ी रही। कुछ देर के बाद मे बैठ गई। फिर अपने आँचल में एक छोटी सी पन्नी निकाली और कुछ कागज़ात वहाँ पर रख दिए। उनमे एक सिलवर का बिल्ला था और आईकार्ड, उसके अलावा कुछ बी नहीं था। उस समय जब वे यहाँ पर रहने आई थी तो उनके पती का इलाज़ यहाँ इरबिन अस्पताल मे चल रहा था। उसके चलते वे कोई कागज़ात नहीं बनवा पाई थी।
एक राशनकार्ड बना था सन 1984 में, लेकिन वो भी यहाँ आग लगने के बाद मे जल गया। बस, यहीं टोकन और आईकार्ड उनके पास रहा। एक राशनकार्ड की फोटोस्टेट भी थी लेकिन उसपर भी तारीख और पंजीकरण संख़्या देखना बेहद मुश्किल था। अब समझ में ये नहीं आ रहा था कि उनके इन दो दस्तावेज़ो को कैसे उनके होने का माना जाये? बिल्ला से तो नहीं लेकिन आईकार्ड से तो पता चल सकता था। मगर राशनकार्ड के बिनाह ये कैसे मुमकिन था पर राशनकार्ड ही यहाँ पर कब से रह रहे हो उसका असली दस्तावेज़ कैसे हो सकता है?
वे भी उन सभी में ये देखने चली आई हैं ये जानने की वे भी दावेदार हैं मकान के यहा नहीं? सभी की तरह से वे भी अपने दस्तावेज़ दिखाते समय उनके बनने के बारे मे बतलाती जाती रही।
आज का माहौल एकदम गर्म रहा, पूरी बस्ती मे सभी कुछ अपने नियमअनुसार चल रहा है। अज़ान से लेकर, दुकानदारी तक। काम से लेकर सरकारी काम भी। नालियाँ सही टाइम पर साफ की जा रही हैं। बिजली भी टाइम पर है। उसके साथ-साथ बस्ती की आवाज़ें भी गानों से भरी हैं। माहौल मे ज़्यादा कुछ तब्दीली तो नहीं है लेकिन सोमवार के इन्तजार मे हैं। सर्वे के शोर मे बस्ती खोने को तैयार है।
लख्मी
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