Friday, March 20, 2009

बैचेन बत्ती के नीचे

चाहें इससे पहले ये कभी जरूरी न रहा हो लेकिन आज के दिन में ये बेहद जरूरी हो गया था। सर्वे के दौरान छाई कागज़ों की कशमकश ने बस्ती के अन्दर के कई ऐसे कारणों को बड़ा कर दिया है कि उसमें मौज़ूद हर कहानी बेहद बड़ी और गहरी हो गई है।

मगर, लोगों के लिए ये बेहद अच्छी बात है कि सर्वे के बीचों-बीच बने ये वोटर आईकार्ड कई घरों व लोगों को यहाँ का बासिदां कहलवाने में मदद कर सकते हैं। एक तरफ दरवाज़े पर हो रहा सर्वे और दूसरी तरफ बन गए वोटर आईकार्ड लेने वालों की भीड़ रूकते नहीं रूकती है।

ये बेहद ठोस दस्तावेज़ है दिल्ली शहर में रहने का। हर तरफ जैसे कागज़ों की ही मारामारी छाई है। हर कोई अपने घर के असली दस्तावेज़ों को पकड़े कभी यहाँ तो कभी वहाँ भागाफिर रहा है।

सत्ता एक तरफ घरों के मौज़ूदा दस्तावेज़ों को छाँट रही है तो दूसरी तरफ इलैक्श्न के मध्यनज़र, इस जगह के हर बन्दे को वोटर बनाया जा रहा है। ये तो साबित ही है कि यहाँ पर रहने वाला हर एक शख़्स सरकार की नज़र में दावेदार है। ये सच है या फिर वोट बैंक है?

एक हजार लोगों के वोटर आई कार्ड लिए सरकारी आदमी बड़ी मुस्तेदी से सबको संभाल रहे थे। दस्तावेज़ों की बहुत बड़ी भूमिका है। टेबल पर लगे चिट्ठे इसको साबित कर देते हैं। ये इस जगह में छाई बैचेनी में बड़ावा करती है। न कि उसे हल करती। आज भीड़ देखने से बनती थी। कई सारी बैचेनियाँ आज खाली कुछ लेने के लिए नहीं बनी थी और न ही किसी दस्तावेज़ को लेने की ही थी। ये आज दस्तावेज़ नहीं रहा था। ये वो चाबी बन गया था जिससे कई लोगों के आसरों के दरवाज़े खुलेगें। ये कसक सभी अपने अंदर लिए खड़े थे। जिनमें हर कोई ये देखने की कोशिश करता की कहीं किसी में मकान नम्बर गलत तो नहीं है, कहीं नाम तो नहीं बदल दिया। तो कोई ये देखने की कोशिश करता की उसके हाथ के आखिरी दस्तावेज़ में जो पता व नाम है काश वही हो ताकि वे यहाँ के रहने वाले के नामों मे अपना भी नाम जुड़वा सकें। उसी से ये बहस कर सकें की वे भी दावेदार हैं।

ये भीड़ के अंदर फैली वे कसक की थी जिसको वहाँ पर खड़ा हर कोई महसूस कर सकता था। एलएनजेपी बस्ती में कागज़ों की भूख बड़ने लगी है। कागज़ों के रूपो में बच्चे, यादें, कहानियाँ और रिश्ते भी उसको भरापूरा करने की कगार पर हैं। किसी पर सारे कागज़ पुराने हैं तो नया नहीं है, किसी पर नये हैं तो पुराना नहीं है। तो किसी के पास दोनों है लेकिन पता गलत छपा है। ये तो अब रेज़गारी बन गया है। बस, झड़प तो लाइन मे अपना नाम दर्ज करवाने की भूख है।

अनाउंसमेन्ट, एलान या पर्चे बँटवाना अब ना भी हो तो भी ठीक है। बोलों के जरिये ही लोगों तक वे सभी बातें पँहुच जाती हैं जिनका उन दरवाज़ों से लेना-देना है जो अभी खुले नहीं हैं। दो तरह के विभाजन बन गए हैं। एक तरफ में आने वाले कल की कल्पना है, जिसका आधार गायब है तो दूसरी तरफ मे यहीं के होने के आसार गायब हैं। सत्ता यहाँ पर खींचने के कोशिश में हैं और लोग समान जुटा कर यहाँ से कब रवाना हो जायेगें की तड़प लिए किसी नये दरवाज़े की राह में हैं।

ये कहाँ के घेरे में रहेगी उसका अहसास होने के इंतजार में हैं। एक-दूसरे की सकल-सूरत में लोग वे आसार देखने की चाहत रखकर ही दिन बिता लेते हैं। मालुम है दिन के ख़त्म होने की सबसे अच्छी बात क्या है, कि कल फिर से यही होगा।

दिनाँक- 18-03-2009, समय- शाम 3:00 बजे

लख्मी

No comments: