Monday, March 9, 2009

मैं बनकर क्यों रहूँ?


दिनॉक- 06-03-2009, समय- दोपहर 3:00 बजे


ज़िन्दगी की सच्चाइओं की जमा पूँजी क्या है? जिनका रफ़्ता-रफ़्ता हम अनुभव करते हैं। कुछ ख़्याल, कुछ कल्पना और कुछ सच -जिसका मिलाजुला रूप हमारी पहचान बन जाता है। शायद अपने से जुड़े रिश्ते भी!

अपने होने का भरोसा दिलाते हैं वरना मेरी अपनी क्या औक़ात की मैं ज़िद करूँ।
मेरा वज़ूद मेरे अपनों के अनुभवों से इस दुनिया में जाहिर है तो फिर क्यों मैं दुश्मनों की परवाह करूँ।
मेरी परछाइयाँ मेरा साथ न छोड़े बस, इतना बहुत है।
क्यों न मैं ज़िंदा रहने के लिए कुछ करूँ।

बना लूँ वो चेहरा जो दुनिया को हँसाता है, लुभाता है। इसके बाद मैं कोई तमन्ना करूँ।
तब मुझे पहचान पाने का न कोई निशान होगा, न कोई सवाल।
फिर क्यों मैं सामने आने की तकलीफ़ करूँ।

जीवन असीम है, निराकार है। इसमें समाकर मैं वक़्त के अंधेरों को रोशन करूँ।
मेरा ढंग, मेरा पहनावा तुम्हें मेरी ज़ीनत बता देगा इसलिए मैं, मैं बनकर क्यों रहूँ?
जो पीछे छोड़कर चल रहा हूँ, वो परछाइयाँ आज भी मौज़ूद हैं तो क्यों न मैं बहुरूपिया बनकर जीयूँ।

राकेश

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