Saturday, March 7, 2009

हक़ीकत की दूसरी तस्वीर

हक़ीकत की वो तस्वीर है जिसमें जगह का बनना और उस बनने में जो ढाँचा दिखाई दे रहा है। उसमे हिलने-डुलने वाला माहौल, चीजें, शख़्स अपनी ज़रूरत के मुताबिक जीते हैं। हर चीज़ का जीवन है जिससे की हम उसको ठीक वैसा ही मानकर नकार कर उसकी स्थिती को जस का तस रखते हैं। जहाँ हम हैं वो जगह कैसे हमें बना रही है? किसी दूसरे की नज़रों से। ये सोचने की ज़रूरत है कि हम किन-किन छवियों में जी रहे हैं।

इन बहुत सी छवियों में जीने का हमारा अलग-अलग दायरा होता है या शायद वो सब कुछ मिलाकर एक ही दायरा है। ये फ़र्क करना तो हालात पर छोड़ देना ही बड़िया होता है। क्योंकि हम जिनके बीच है या जो हमारे साथ हालात है उनको सहजता से अपने अन्दर लेना और वापस छोड़ना कठीन भी होता है और आसान भी होता है या फिर यूँ कहीये की अपने ख़्याल का कोई चित्र बनाने का तीसरा अंदाज भी हमारे पास होता।

हमारा शरीर जब कहीं होता है तो रोशनी हो या न हो, शब्द, चेहरा, आवाज़ हो या न हो पर शरीर का वज़ूद कहीं तो गिरता है। जिसके गिरने से किसी नदी के धीरे-धीरे बहते पानी में उसके प्रतिदिन के बहाव या कह सकते हैं की स्वभाव या छवि के दरमियाँ जब गिरता तो सारा माहौल एक बदला तस्वीर में आ जाता है। बस, हम उसी तस्वीर को ही पकड़ लेते हैं।
फिर उसमे जीने लग जाते हैं। चाहें वो जिस तरह भी हो। शरीर का एक अपना ढाँचा होता है।
जिसके साथ बने हालातों के कई प्रकार होते हैं। हालात का चेहरा साफ, तराशे हुए, धूंधले, खुर्दरे, मठमैले, अलग-अलग दिशा में मोड़े हुए चुप्पी साधे हुए, तेजी थामें हुए, गुस्साए हुए, क्रूरता से भरे हुए, नादानी में खेलते हुए, हँसते, मुस्कुराते, सहमे और सब कुछ देखते सोचते पर कुछ नहीं बोलते हुए हैं। इनके साथ हम कहीं न कहीं जीते हैं।

कभी अपनी परछाई से वास्ता रखते हैं और कभी वास्ता नहीं भी रखते। लेकिन वो अपनी परछाई को अपने साथ चलने वाली एक छाया समझते हैं जिसका अहसास कभी पा लेते हैं कभी उसके अहसास से महरूम रह जाते हैं।

जो हक़ीकत के घटने या कुछ होने का सकेंत देती है। इसके साथ-साथ चलते हुए भी खूद के ख़्याल या खाली स्थान को किसी दुनिया से हम भर देते हैं। लेकिन हक़ीकत के पीछे कई सारी कतारों में लगी शख़्सियतें हैं जो विभिन्न रूपों को बनाकर रहती हैं और कभी कतारों को तोड़कर जीने की कोशिशें करती हैं।

शरीर का वज़ूद कभी मरता नहीं है उसे ज़िंदा रहने की वज़ह मिल ही जाती है। किसी जगह भी रहने पर या बसनें पर लोगों कि पहचान बनाने का और जगह में आने की गणना शहर माँगता है। वो चाहें पहचान पत्र से हो अक्षरों में हो या अंको में उस से कोई फ़र्क नहीं पड़ता।जगह में किसी के आने की ख़बर सत्ता होनी चाहिये जिससे आबादी का एक बदलाव के बाद दूसरे बदलाव से क्या किया या क्या आया इस का ब्योरा सत्ता अपने पास जमा करती है।

शहर सत्ता की वो दूनिया है जिसमें हक़ीकत का रोल अदभूत ढ़ंग से बनाया है या किसी के लिए नियमपद और किसी के लिए आज़ादी । शहर में जैसे बनी एक जगह जो सबको अमंत्रित करती है। सार्वजनिक स्थान का ढाँचा लिए हुए ये जगह खुले मंच के रूप में है फिर भी कहीं इसमे सत्ता के बनाये कई नियम और कानून है जो हर व्यक़्ति को अपने मुताबिक घुसने ही नहीं देते।

बस, सबको एक न्यौता है जो आना चाहें अपना अंदाज हटाकर आए और जो हम दे रहे हैं उस शख़्स के अंदाज को खुद में ढ़ालकर जीना पड़ेगा। ये कैसा शहर है? मैं ये कहकर शहर पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना चाहता क्योंकि मैं भी इस शहर या उस जगह में कहीं होकर आता हूँ। शहर के सभी नियम कानून का आदर भी करता हूँ और उन्हे तोड़ता भी हूँ की
इससे एक-दूसरे की तरफ खिचने में आसानी होती है जिससे ये पता चलता है की छोटे-छोटे स्तर पर लोग एक स्थान में आकर जीवन को रखते हैं जिसमे इंसान उसके और अपने बीच क्या रिश्ता है?

वो चेहरे जो जगह में रहने के लियए कुछ इस तरह के चेहरे लगाये रहते हैं उनका एक से दूसरे का क्या मेल है? उनकी सही पहचान कौन सी है? ये फ़र्क हम कर ही नहीं पाते। क्योंकि जो दिख रहा है वो भी एक हक़ीकत है और जिसे रोज़ाना अपनाकर चल रहे हैं वो भी एक हक़ीकत है। चाहें कोई फ़र्जी राशन कार्ड हो, पहचान पत्र या पासपोर्ट क्यों न हो। इस फ़र्जी और असली पहचान के पीछे वो शख़्स छुपा है। दुनिया से अपने आप को छुपा कर रखता है।
पीड़ित, शोशित और राजनैतिक दामन को स्वीकरने के बाद भी अपने समाज मे सुखमय और सुंदर जीवन जी रहा है। क्योंकि हम जहाँ है वहाँ सच है झूठ है। मज़ा है बैचनी है, थकावट है उत्तेजना है, महिनता है तो ख़ोखला है। मगर सबसे कहीं न कहीं रिश्ता है जिसे आप के मानने या न मानने से किसी फ़र्क नहीं पड़ता मगर रिश्ते में खुद को देखने से बहुत कुछ मिलता है जिससे की ज़िन्दगी का उद्देश्य आप पा जाते हैं।

तो फिर ये कौनसी ज़िन्दगीं है? जिसमें अपना आशियाँ बनाकर ये सब हक़ीकतों के पीछे अपने अतीत का हाथ थामे उसे दिन-प्रतिदिन गहरा कर रहे है। कहीं फैला रहे हैं।

सबके पास एक चेहरा है जिसके पीछे भी एक चेहरा है। वो समाज की नज़रों से गायब है वो एक तसल्ली पाने की दुनिया बनाकर माहौल में मौज़ूद है और अपने मन को किसी पंछी की भाँति लिए उड़ रहा है। वो आज को लेकर चिन्तित नहीं है न उसे भविष्य की फ़िक्र है और न उसे बीते कल की परवाह है।

ये तो कुछ और ही माझरा है जिसमें तमाशा दिखाने वाला बाज़ीगर भी वही है। तमाशा देखने वाला दर्शक भी वही है और बाज़ीगर के इशारों पर नाचने वाला भी वही हैं। अब ये फ़र्क करना बड़ा कठीन सा हो जाता है की इंसान को कौनसी श्रैणियों में लेकर उसे चिन्हित किया जाए और तब ये जरूरी हो जाता है की इस बहुरूपिया जीवन को देखने की कोई नई आँख तो है।

एल.एन.जे.पी बस्ती, जिससे सटी हुई सड़क जो दिल्ली को दो तरह से विभाजित करती है। यहाँ बिचो-बीच बनी इस सड़क से जो दिल्ली शहर को पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली के नामों से परीचित करवाती है।

इसके साथ कुछ और भी जुड़ा है जो शहर को एक नई पौशाक देते हैं और एक प्रक्रिया भी देते हैं जिससे ख़ुद-ब-ख़ुद एक जीवनशैली बन जाती है। वो जगहें जो अपने हुनर और तर्ज़ुबों से बनाये और सजाई सौंगातों को दिल्ली शहर को पेश करते हैं। इन जगहों में केवल वो सौंगाते ही नहीं बनती बल्कि वो कलाकार और तर्ज़ुबेकार लोग यहाँ रहते हैं। जो जीवन की असम्भवता से जूझकर हर पल मुस्कुरातें रहते हैं।

एक बड़े पैमाने पर टिका लोगों की ज़िन्दगी का सफ़र कभी तो वक़्त की चर्मसिमा पर आ जाता हैं। वो चर्मसिमा जिसे बहुत साल पहले ही खींच दिया होता है। जैसे घर मे पैदा हुए बच्चे का नामकरण और वो बड़ा होकर क्या बनेगा ये भी सोच लिया जाता है फिर एक निश्चित होने छाप सब की जूबाँ पर होती है।

जिसकी पहले ही घोषणा करदी जाती है। इसी तरह जगह का भी और किसी नये आने वाले का भी एक निश्चित दायरा तयकर दिया जाता है जिसमें होने वाला कोई भी शख़्स कुछ सीमाओं तक ही ख़ुद को सोचता है पर उसका जो समय है वो तो ख़ुद के हाथ में होता है इस लिए वो अपने को ऐसे रचना शुरू करता है की किसी दायरे का बोझ उसके ख़्याल को या अपने अहसास को मरने ही नहीं देता। वो जिस जगह में जायेगा अपमा छाप बनायेगा।

सत्ता तो सीमित दायरो में एक दूनिया बसाने के बाद दूसरी दूनिया को बसाने के लिए पहली वाली को उजाड़ती है। वो ये ख़बर सब को दे देती है की जिस ज़मी पर आप कदम रख रहे हो और अपना घौंसला बना रहे हो वो ज़मी आप की अपनी नहीं है।

उसका मालिक कोई दूसरा है जो कभी भी अपनी योजनाओं का यहाँ नक्शा खींच सकता है।
सारी घोषणाओं के बावज़ूद सारे नियमों और कनून को तोड़कर भी लोग किसी तरह अपने रहने-सहन के लिए जगह बना ही लेते हैं। ये लोग कौन हैं? जो इतना परिश्रम के जीवन को जीते हुए किसी जगह को अपना कहकर पुकारते हैं।

मैं सोचता हूँ की मानव जीवन में हर कोई ऐसा नहीं होता ही इतनी गहराई होती है की समय के किसी पताल में समाय होने पर भी हम अपने को दिखाने साबित करने के लिए उस जगह को अपनाकर अपने पर सोचकर किसी समझाते हैं। मैं इस जीवन को और समझना चाहता हूँ और समझने की कोशिश कर रहा हूँ।
हर इंसान को ये अधिकार है कि वो अपने जीवन को जीनें का ढाँचा ख़ुद बना सके जिसमें उसके अपने सपने हो उसकी अपनी चाहतें हो तरीके हो। वो किसी भी नियम या कानून का उलंघन किए बिना हो तो सरकार या समाज उसको चाहेगा। उसे अपने मांपडण्ड में रखेगा।
अगर कोई शख़्स सरकार के बनाये कानून और नियमों के बाहर जाता है तो वो सरकार की नज़र में दोषी ठहराया जाता है।

लेकिन सारे तकल्लुफों के बाद भी इंसान अपने मुताबिक अपने आपको कहीं रोक ही लेता है या किसी ढाँचे की वो ख़ुद रचना करता है या फिर किसी ढाँचे में दाखिल हो कर वो जीने के साधन और समाग्रियाँ बना लेता है।

एल.एन.जे.पी अस्पताल की कॉलोनी के पास बनी बस्ती एक जगह जो सैकड़ों-हज़ारों लोगों का घर है जिसमें गोदाम, कारखाने हैं। उठने-बैठने और अपने ख़्यालों को, सपनों को सोचने की निशस्तगाहें हैं, मंदिर और मस्ज़िद हैं। इस जगह को कई अलग-अलग नाम से जाना जाता है। ज़िन्दगीं की सारी जमापूँजी को लेकर यहाँ पर जगह-जगह से लोग आकर बस गए और अपनी कलाकारी, हुनर के आधार पर अपनी दुनिया बना कर रहने लगे हैं।


जैसे-जैसे लोग सरकार की नज़र में आते जाते गए सरकार उन्हे एक दायरे में रखती गई। अपने जारी किए गए दस्तावेज़ों में सम्मिलित करती जाती है। सरकार के पास अगर दस्तावेज़ों का चिठ्ठा हैं तो एल.एन.जे.पी बस्ती के लोगों के पास कई बयाँन और सबूत हैं जो सरकार के बसानें और सरकार के ही नूमाइदों के उजाड़ने के बीच ही में कहीं अपनी पकड़ बनाये हैं।

वो बयाँन और सबूतों को लेकर अपनी मौज़ूदगी का ब्यौरा बताते हुए उन परीस्थितियों के बारे मे बताते हैं जिसकी वज़ह से आज तमाम लोग सरकार के ही कटघरे में खड़े हैं। इन्हे कटघरे मे लाने वाले भी वही हैं जो पहले कभी इनको पहले यहाँ भराव के लिए रोकते गए।

सरकार ही है जो की बार-बार बदलने पर नये सिस्टम लागू करती है और लोगों को बसाने के बहाने उनका मत हासिल करती है। ये सब एक प्रक्रिया के तहत होता है। जो बसाने के बहाने अपनी जगह का भराव लोगों की ज़िन्दगीं की मूल्यवान सामाग्री के ऊपर अपना राज कायम करना है।

ये तो हुकूमत है जिसका शासन चल रहा है जिसकी लाठी उसकी भेंस। पर जो लोग हैं वो अपने आपको ज़िन्दा रखने के लिए कभी वक़्त से समझौता करते हैं और कभी समझौता नहीं भी करते हैं। वो जीनें के लिए नये नाम, पहचान को अपनी छवि बना ही जीते हैं और हर छवि चाहें वो राजनेता हो मजदूर, काफ़िर या एक लेखक हो छवि तो छवि होती है जिसमें प्रतिभाएँ छलकती हैं। सूरज की तरह किरणे जगमगाती हैं जिसके नूर में इंसान अपने को सम्मपन्न देखता है। जिसके आगे चट्टाने भी सिर्फ़ एक पत्थर की तरह लगती है। जब चट्टान से कोई पत्थर गिरता है तो इंसान उसके सामने एक चट्टान बनकर खड़ा हो जाता है।

आज बस्ती में जब सत्ता का ही एक पत्थर गिरा तो लोग हैरान होते हैं। जूँझलाते है। तो कुछ अपने सफ़र को खानाबदोस की तरह बयाँ करते हैं। कुछ वक़्त की कालगुजारियों में कहाँ-कहाँ आकर ठहरे तब की किस्सगोही करते हैं। यूँ तो कई किस्से और घटनाओं को सूनकर लगता है की शायद लोग दुनियाँ में मनोरंजन के लिए पैदा होते हैं। ऐसा लगता है की ज़िन्दगी भर लोग कड़ी महन-मश्कत करने के बावज़ूद शरीर को आराम देकर रोज़ाना की भूख को शान्त करके सरकार का खेल देखते रहते हैं। सब कुछ उनके सामने हो रहा है फिर वो बेख़बर कैसे हो गए। रोटी, कपड़ा और मकान के अलग इंसान की और भी भूख होती है जिसको वो बार-बार मिटाता है और वो बार-बार पैदा हो जाती है।

ये भूख इंसान को जहाँ ले जाती है वो वहाँ-वहाँ चलता है। अपनी ख़्वाइशों और कल्पनाएँ लेकर इंसान वक़्त की बराबरी में जूँझता हैं। वो इंसान समाज के गठनों कानून की अवहेलना नहीं करता। किसी को भी दोषी नहीं ठहराता, वो मस्तमलंगा की तरह ये दुनिया जैसी भी हो उसमें अपने को बनाकर अपनी चाहतों, कल्पनाओं की छाँव में बैठा किसी हवा के ठंडे झौंको का मज़ा लेता है। जहाँ से उसे कोई सत्ता, सरकार या कानून नहीं हटा सकता क्योंकि इंसान की अपनी दुनिया उसके अपने पास होती है जिसमें कैसे जीना है। क्या करना है? ये उसे पता होता है।


राकेश

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