Thursday, March 5, 2009

सत्ता अपने को धूंधला रखकर क्या-क्या उभार सकती है?

धूंधलापन यानि पीछे का कुछ न दिखना,
धूंधलापन यानि सिर्फ सामने का ही दिखना
धूंधलापन यानि इन दोनों के बीच के अंदेखे वाक्यों का अनुमान भरना।

कोई भी चीज ऐसी नहीं थी जो इस धूधंलेपन की साख़ पर न टीकी हो। धूंधलापन चीजों के पीछे छुपे वो तमाम छेदों को कुरेदने की ताकत रखता है जिन्हे कभी छुआ भी नहीं जा सकता। वे सभी दर्रारों को हरा करने मे सहायक बन जाता है जिनपर अनुमान की तलवार चलती है।

चीजों के बनने से उनके बने रहने तक के वे सभी पन्ने बन्द दस्तावेज़ों की तरह से बन जाते हैं जैसे उनपर अतीत की मिट्टी से कुछ नक्काशी की गई हो। ये वे परत हैं जिनको अंदेशो और आवरणों का पहला पृष्ठ बना दिया जाता है।

धूंधलापन शायद, किसी भी चीज का वे रूप नहीं दिखाना जिसे आसानी से देखा जा सकता है या वे नहीं दिखाना जिसे स्वभाविक मानकर जीते हैं। इसमे वक़्त, एक झिल्ली की तरह से बना रहता है जिसमे बातों और ज़ज़्बातों को छुपाये रखने की ताकत नहीं होती।

आज इस ठिकाने में इस शब्द कि कीमत कुछ और ही है। इसे समीकरणों में तोला नहीं जा सकता और न ही इसे खुद के खेलों मे खेला जा सकता। ये दौर बिना कुछ दिखाये आपको आपसे छीनकर ले जाने की करार पर पनपता है। ये सिलसिला है, असल में धूंधलापन एक ट्रिक यानि पैंतरे की भांति अपनाया गया है।

इस दौरान हो रहे इस सर्वे में धूंधलेपन को बेहद नज़दीक से महसूस किया। जिसके जरिये इतने जीवन, फैसले, गैरकानूनी इंतजामात और कुछ ऐसे दबे रिश्ते खुलकर सामने आये जो अभी तक बन्द दस्तावेज़ों और कहानियों मे बसे थे। इस सर्वे ने वे सब बस्ती के बीचों-बीच खोलकर रख दिये। सत्ता का धूंधला होना इन सभी चीजों को बाहर आने पर मजबूर कर देता है। जिसमे आपको ये तक पता नहीं होता कि आप जो भी कहने वालों हो उसका इस प्रक्रिया से क्या लेना-देना? बस, खुद को मौज़ूद रखने के लिए कुछ गढ़ते हो। वही गढ़ना ऐसी बातों का जन्म होती है जिससे आधार को आँकने की एक और राह खुलती है।

ये गढ़ना क्या है? वे सभी कहानियाँ क्या है जिसे रचा गया है? या वो असली कहानियाँ क्या है जिससे किसी जगह का जन्म हुआ है? वे लोग कौन हैं और कहाँ है जो इन कहानियों मे मौज़ूद हैं?

सत्ता जिसके पास ये आज़ादी होती है कि वे अपने को और अपने पैंतरों को धूंधलेपन मे रखकर किसी जगह मे दाखिल हो सकती है। उसी मे से एक पैंतरा है सर्वे। जिसे वो आज के वक़्त मे एलएनजेपी बस्ती मे आज़ामा रही है। सर्वे का आधार क्या है वे धूंधला‌ है, सर्वे का निर्णय क्या है वे धूंधला है और सर्वे में सवाल अथ‌वा माँग क्या है वे धूंधला है। इन चीजों को धूंधला रखने का मतलब क्या है?

उस सभी दबी बातों, कारीगरी और चालाकियों को खींचकर निकाल लेना जो आम बातों मे कभी अपनी जगह नहीं बनाती। एक बार कूद जाओ बस, फिर तो जैसे घर, परिवार, रिश्ते, बीता हुआ वक़्त, क्या बचत है?, अस्त्विव सब कुछ बिखर कर बाहर आने लगता है। खुद को जाहिर करने की मुहीम मे वे सब निकलकर आ जाता है। अपने मालिकाना दावेदारी दिखाने के लिए सम्मिट किया दस्तावेज़ों मे वे तमाम चीजें उभर जाती है जो बीते हुए कल, आज और इस वक़्त की हैसियत को भी जाहिर कर देता है।

एलएनजेपी बस्ती मे भी कुछ ऐसा ही हुआ। दस्तावेज़ों के दुनिया में कई ऐसी कहानियाँ और दिक्कतें उभरी जो बिना इस धूंधलेपन के कभी ज़ुबान पर भी नहीं आ सकती थी। लोगों के मुँह से सुने कई ऐसे वाक़्या जो बस्ती को कोई और ही रूप दे देते हैं। ऐसा लगा जैसे बस्ती की कहानियों मे इन लोगों की कोई जरूरत नहीं है जो अपने हाथों मे आज अपने दस्तावेज लिए खड़े हैं।

एक ही घर का एक से दूसरे तक जाना, दूसरे से तीसरे तक पहुँचना। बेटो मे खटास होना और कागज़ातों मे हेरा-फेरी होना। पति का बीवी के नाम कुछ न करना।

सर्वे अधिकारी की एक शख़्स से बातचीत,
सर्वे अधिकारी, "मकान नम्बर क्या है?"
दावेदार, "सी 4ए / 232"
सर्वे अधिकारी, "किस के नाम पर है ये झुग्गी? लाओ कागज़ात दिखाओ।"
दावेदार, "जी ये नूरमोहम्मद के नाम पर है। वो हमारे चचा हैं। ये है उनका राशन कार्ड।"
सर्वे अधिकारी, "नूर मोहम्मद कहाँ है उसे बुलाओ और बी.पी सिंह का कार्ड है तो वो लाओ।"
दावेदार, "जी वो तो अभी हैं नहीं, कार्ड ये रिया।"
सर्वे अधिकारी, "क्यों वो क्यों नहीं है? राशनकार्ड को किसी रसीफ के नाम पर है।"
दावेदार, "हाँन, जी ये मैं ही हूँ, हमारे चचा हमें ये बैच गए हैं। हमारा निकाह हो जाने के बाद में। वे तो अब रहवे न हैं यहाँ हमी रह रहे हैं बाहर सालों से।"
सर्वे अधिकारी, "खरीदी है, कोई खरीदी पेपर तो होगें दिखाओ।"
दावेदार, "हाँन जी, ये रिये।"
सर्वे अधिकारी, "ये सन 1998 के हैं मगर ये तो किसी इस्माइल के नाम के हैं 80.000 मे खरीदी है। ये इस्माइल कौन हैं?"
दावेदार, "ये हमारे अब्बू हैं।"
सर्वे अधिकारी, "तो भाई अपना राशनकार्ड क्यों दिखा रहे हो, उनका दिखाओ।"
दावेदार, "वो त मर गए।"
सर्वे अधिकारी, "तो मरने के कागज़ात तो होगे।"
दावेदार, "हाँन जी हैं ये रिये।"
सर्वे अधिकारी, "ये सन 2002 मे मरे हैं, ठीक है।"

सत्ता का ये धूंधलापन जगह के बनने की कहानी-बनते रहने की कहानी, जीने के तरीके- जीने की जिद्द, कानून मानने और न मानने के सारे चित्रों को एक ही सूची मे पिरो देता है। ये जैसे खुद-ब-खुद होने लगता है। बिता हुआ समय, आज और इसी वक़्त, सभी की बुनाई एक ही तार से कर देता है। वे सभी किस्से इसमे उभरने लगते हैं जिसका आधार बना नहीं होता। वे आज के वक़्त मे अपने आधार को खोजते हुए निकलत आते हैं।

इन सभी चित्रों मे मौज़ूदा हालात, रहन-सहन, जगह बनाने और समान जोड़ने, बचत और करोबारी, दरवाजें और आँगन, दस्तावेज़ मे मेम्बर और मुखिया। ये सब उस वक़्त मे पसरे होते हैं। वे बातें और बुनकर रखे रिश्ते सभी उनके पन्नों मे दर्ज हो जाते हैं।

ये खेल धूंधलेपन का नहीं बल्कि खुद को साबित करने के चक्कर मे लोग खेलने लगते हैं। खुद को बतलाने के तरीके, वज़ूद दिखाने के सबूत, समय दिखाने के कागज़ात और रिश्तों को बताने की कहानियाँ जो कभी सुनाई नहीं जाती वे इस वक़्त की सबसे बड़ी शिकार होती है।

धूंधला होना, चीजों को स्पष्ट रूप मे देखने की चाह मे पनपता है। स्पष्ट हो जाना चीजों के पीछे छुपी कहानियों को पी जाता है। उन्हे गोल कर जाता है। ये वे नहीं होने देता। सब कुछ धूंधला होने उन छुपी बातों को स्पेस मिल जाता है।

तीन चीजों मे इस आधार का संदेह होता है।
पहला- अनुमान और हकीकत के बीच का दौर।
दुसरा- रहन-सहन करना और खुद को बताना
तीसरा- आर्थिक व्यवस्था दिखाना और बचत को दोहराना।

इसके पीछे छुपा है सब कुछ, इसी को आज़ाद कर देता है ये दौर।

मगर, इस संवाद और माहौल के ऊपर मेरी ख़ुद की एक नज़र रही है। क्या मैं सत्ता की नज़र मे फँस गया हूँ? क्या मैं अपनी ख़ुद की नज़र से कोसो दूर हूँ? या फिर इस दौरान कोई ऐसी नज़र है जो हर नज़रिये पर हावी है?
मैं सत्ता की नज़र और अपनी नज़र में कोई विभाजन नहीं बना पाया हूँ? इसके लिए मेरे पास क्या होना चाहिये क्या कोई सवाल?, नये तरह से बस्ती के लोगों के बीच में दाखिल होना? वे क्या हो?

लख्मी

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