पैंट का झोल बड़ गया है। अब तो बेल्ट भी किसी काम की नहीं रही। कब तक उसमें छेद ही छेद करने होगें। इतने छेदों से भर गई है कि अगर उसमे फूँक मारी जाए तो बाँसूरी की बजने लगेगी।
खाट में झूले की तरह से वे बैठे अपनी पैंट की कमर को सिल रहे थे। इतनी बार सिलाई हुई है कि पीछे की दोनों जेबें आपस मिल गई हैं। लेकिन आज भी ख़ुद ही उसकी तुरपाई करने में जुटें हुए हैं। आँखों पर मोटी और भारी फ्रेम का चश्मा बार-बार उनकी नाक से फिसलकर नीचे आ जाता पर उनकी तुरपाई करना बन्द नहीं होता।
कई बार सिलाई होने से पैंट में कई झोल आ गए हैं। लेकिन उन्होंने इस तरह से उसे सिला था की वे झोल भी किसी पैंट की प्लेटों से कम नहीं लग रहे थे। पैंट में लुप्पियाँ महज़ नाम मात्र के लिए ही बची थी। उन्ही में वे अपनी बेल्ट को घुसाकर अपनी कमर से लपेट लेते और कमीज़ को थोड़ा सा बाहर निकाल लेते बस, जहाँ से पैंट में ज़्यादा झोल होता वहीं से कमीज़ ज़्यादा बाहर लटकी रहती। बस, हो गया मेनेज़।
शामू नवाब कपड़ों की मेचिंग पर बहुत ध्यान देते हैं। अगर कमीज़ का मेल पैंट नहीं होता तो दोनों में से कोई नहीं पहनते मगर आजतक ऐसा हुआ नहीं है। वे जैसे हर चीज़ को आखिरी वक़्त तक चलाते। आखिरी साँस तक उसको जीने लायक मानकर चलते।
आज भी उनकी सुई और धागे की ताल बज रही थी और उस ताल पर उनकी पैंट नाच रही थी। पूरी पैंट पर अलग-अलग धागों की रेखाएँ चमक रही थी। नीचे के पायचें पर अलग, जेब पर अलग और लुप्पियों पर तो अनेकों रंग झलक रहे थे।
क्या ये रंग-बिरंगा दोस्ताना खाली उनकी पैंट व मेचिंग की ही भूमिका निभाता है? शामू नवाब अपनी इस ताल की रिद्दम पर ख़ुद भी थिरकते हैं। ये थिरकना माना की भागदौड़ को ही बयाँ करता है लेकिन इसे थिरकना कह देने से इसकी अहमियत में बेहद फर्क पड़ता है। थिरकना अपने आपको शहर के बीच में रखने का एक नया पैमाना बनकर उभरता है। थिरकना लगता है जैसे ख़ुद में कुछ अलग अहसास लिए हैं। भागदौड़ कहलो या फिर हर दिन का खेला, इसे बतलाने और सुनाने के आयाम अगर ख़ुद से बना लिए जाये तो ये बेहद ख़ुशमिज़ाज़ बनकर खेलता है, चेहरे पर ताज़गी से भरा रहता है। शामू नवाब यही नारा सबको कहते फिरते हैं। उनके हर एक बोल में इसी की महक शामिल रहती है। वो तो कभी-कभी कहते हैं कि "जब मैं लालबत्ती पर खड़ा होता था और नम्बर चलते थे तो मैं उन्हे साथ की साथ गिना करता था। ऐसा लगता था की मेरे ज़ीरों कहने से सारी गाड़िया चल पड़ेगीं"
ये खेल खाली उस पैंट, कपड़ों की मेचिंग या फिर लालबत्ती के साथ दिन को भरना ही एक मात्र अंदाज़ नहीं बनता। शामू नवाब अपनी जेब में कई ऐसी मेचिंग लेकर चलते हैं, लोगों में घुसते हैं और उनके लिए कुछ कहते हैं। ये कहना कई नये रिश्तों के दरवाज़ें खोल देता है। इसमें अंजान बन्दा भी तुरंत शामिल हो जाता है। ये कैसे मुमकिन है? ये कहना थोड़ा अटपटा है वो भी आज के वक़्त में। जबकि हमारे बीच में कई ऐसे चेहरे व लोग हैं जो एक-दूसरे को पढ़कर नये रास्ते खोजते चलते हैं या तो वो एक-दूसरे को पढ़ लेते हैं या फिर समय की नज़ाकत तो पढ़कर अपनी भूमिका तय कर लेते हैं। उन सभी भूमिकाओं के बीच में शामू नवाब भी शामिल हैं।
उनकी दौड़ तो सुबह छ: बजे से ही शुरू हो जाती है। यही टाइम है जब काम पर भागने की जल्दी में लोग अपने अन्दर ताज़गी भरने के लिए पंद्रह से बीस मिनट बाहर निकल आते हैं। हर रोज़ सुबह छ: बजे अख़बार वाले के साथ मे बने बस स्टेंड पर वो कई अंजाने लोगों के बीच किसी न किसी विषय पर बातें करने का काम करने लग जाते हैं। जिससे उनका भी वे काम हो जाता है जिसका चश्का उन्हे पंद्रह साल से है। उन अंजान लोगों के बीच में वो इस तरह से खड़े हो जाते हैं जैसे अख़बार बिकने से पहले ये जगह कई बातें का अड्डा है।
सुबह-सुबह का यह आलाम लोगों को एक-दूसरे में घुलने-मिलने का बेहद न्यौतेदार समय बनता है। उन्हे मालुम था इस न्यौतेदारी रिश्ते का। अपने हाथों में थामें कई अलग-अलग कामों के विज़िटिंग कार्ड और मुख पर कई बातें लिए वे बेहद आसानी से लोगों के बीच में खड़े हो जाते हैं। अपनी हर मुस्कुराहट के साथ वे उसे तैयार रखते हैं और बस, लोगों से मिलने का सिलसिला आरम्भ हो जाता है।
उनकी जेब में वे सब होता है जिसकी हर किसी को जरूरत है। वे सब मौज़ूद है जिसकी लोग चाहत रखते हैं। बस, किसी ने कुछ चाहत रखी और उनकी जेब खुल गई। जेब में हाथ डालते ही वे दस, दस चीज़ें एक साथ निकाल लेते हैं।
आज की तारीख में शामू नवाब क्या नहीं करवा सकते। हर चीज़ का ठेका उन्ही ने ले लिया है जैसे। सड़क के एक किनारे वे खड़े होकर लोगों के हाथों को पकड़कर उनको कुछ न कुछ पकड़ाते रहते हैं। पहली नज़र मे चाहें कुछ भी सोचे लोग लेकिन हाथ मे आई चीज़ को एक बार तो नज़र भर देख लेते हैं। उनको तो इसी से तसल्ली हो जाती है।
उनकी जेब में वो सब है जो आपको चाहिये। बस, उनके हाथ पकड़ने की देरी है।
लख्मी
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