Wednesday, March 4, 2009

दरवाजे के सामने से

चौथा दिन
दिन सोमवार, 2 मार्च 2009, समय सुबह 09:30 बजे।

आज का अनुभव मेरे ख़्याल से कभी गायब या ओझल नहीं होगा। आज का दिन जैसे बहुत जल्दी ही शुरू हो गया था। ऐसा लगता जैसे आज मैं लोगों मे उतरा हूँ। उनके अतीत में, उनकी यादों मे और उनकी कहानियों में। ये कहानियाँ कहने और सुनाने के जैसी ही नहीं थी। ये किसी को भी पकड़कर सुना देने के जैसी भी नहीं थी और न ही ये जबरदस्ती अपनी बाते बोल देने के समान थी।

पूरी बस्ती जैसे खुली हुई लगी। घर और उनके जमा किए कागज़ातों मे आज दाखिल होना बिलकुल भी मुश्किल नहीं था। हर दरवाजा जैसे उसके लिए चौपट खुला था जो उनके कागज़ातों मे उनके बीते 35 से 36 साल दिखा सकें। रिश्तों के मायने दो लोगों के दरमियाँ एक दूसरे के लिए बन गए थे। कोई भी न तो अंजाना था और न ही बैगाना। हर कागज़ात, हर कहानी, हर चेहरा और हर दरवाज़ा समान हो गया था। तेरा-मेरा कुछ भी नहीं रहा था। सन 1990 और 2009 के बीच की दूरी कई कहानियों से भर गई थी।

लोग वो समय देखने की चाहत में आपके सामने खड़े हो जाते जो वे खुद बना चुके हैं। जो उनके घर के कागज़ातों मे मौज़ूद है। उनकी तारीखों मे गढ़ा है और उनके परिवार के सदस्यों के नाम मे दर्ज है। मगर ऐसा कब होता है? ये देखना कब जाहिर होता है? क्या कोई बड़ा बदलाव आने वाला है? बदलाव का कीला ठोक दिया है? क्या समय है ये?

किसी को ये पता हो या न हो लेकिन मन मे एक बात जम गई थी के जिस जगह मे वे रह रहे हैं वे बहुत जल्दी विस्थापित कर दी जायेगी और कुछ वक़्त के बाद मे सब कुछ जैसे बिखर जायेगा। इसलिए जितना हो सकें अपने यहाँ रहने के समय को बताना था। इस बस्ती का सबसे बड़ा घेहरा जिसमे लगभग 100 मकान होगें। वे सभी एक घर के सामने इक्ठ्ठा हो गए थे। सभी के हाथों मे अपने घर के दस्तावेज़ थे। किसी के पास जल हुए दस्तावेज़ों के टुकड़े थे तो किसी के पास खाली वी.पी सिंह के जमाने का आईकार्ड।

अब इन दस्तावेज़ों के बीच में भी कई तरह के खेल छुपे थे। नियमअनुसार अगर चला भी जाये तो भी इनका होना मुश्किल ही होता। जैसे अगर आप अपने घर के खाली पुराने दस्तावेज़ दिखाते हैं तो आप NDS ( Non docoment show) घोषित कर दिये जाते और अगर आप सारा नया दिखाते तो आपको नया ही घोषित कर दिया जाता। यानि आप अभी आकर बसे हैं। सरकारी टाइम लाइन के बाद। यानि 1990 से 1998 के बाद हैं।

इसी डर को लिए सभी लोग उस घर के बाहर आकर जमा हो गए। देखते-देखते वो घर का दरवाज़ा कई आवाज़ों से भर गया। कहीं से लोग अपने कागज़ात दिखाते तो कभी अपने घर के बने कागज़ों मे दिक्कते बतलाते। किसी मे मुखिया बदल गया होता, किसी में खरीदी होती, किसी में पता बदल गया है तो किसी में जिसके नाम का घर है वे मौज़ूद होने के बाद भी तस्वीर मे तब्दीली हो गई है। फिर भी दस्तावेज़ों मे अपने को खोजने की उम्मीद चेहरों मे भरी दिखती।

मैं उन सभी बातों का हिस्सेदार था। कभी फैसला देने वाला तो कभी शुभचिंतक तो कभी सलाह देने वाला। हर घर के किस्से मे मेरे रूप बदलते रहते। लगातार बदल रहे थे। किसी- किसी जगह पर मैं उनके ही घर का वे सदस्य बन जाता जिससे वे भी बोला जाता है जो किसी सर्वे टीम को नहीं बताया जा सकता। उसके साथ-साथ लोग वे ख़्याइस भी बताते जिसे वो चाहते हैं कि उसक नाम पर शहर मे कोई आसरा हो।

आज जैसे लोग टूटने को नहीं आसरा मिलने की आस में जी रहे थे। ये सारी लड़ाई, भागदौड़, बैचेनी और हड़बड़ाहट उस आसरा पाने की चाहत मे पनप रही थी। शहर से टूटने को लोग भूलाकर कुछ पाने की उम्मीद मे अपने बीते समय को माँज रहे हैं। ये एक ताकत है जो इस समय की आस होती है।

उस आस में मैं आज रहा हूँ।

लख्मी

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