Saturday, March 7, 2009

अपने कोनों को सवाँरना


दिनॉक- 6-03-2009, समय- दोपहर 3:00 बजे



दिल्ली जैसे बड़े शहर के आगोश मे पनपने वाली कई ऐसी जगहें हैं जो कभी दिखती नहीं है मगर क्या हमें पता है कि वे शहर में कैसे घूमती हैं?

इस रास्ते को लोग बेहद सवाँरकर रखते हैं। हर रोज़ सुबह से ही यहाँ से जाने की तैयारी शुरू हो जाती है। यहाँ की हर सुबह तलाश से शुरू होती है और शाम आराम की थकावट मे खो जाती है।

दोपहर के वक़्त मे जब वो अपने चूल्हे को लीप रही थीं। दिमाग मे अलग ख़्याल चल रहे थे और शब्दों में कुछ और ही गूँज रहा था। हर हाथ पर उनके चूल्हे की नक्काशी को देखने की तमन्ना गहरी होती जाती। उनके छोटे से कमरे में खड़े होना ऐसा लगता जैसे मिट्टी पर पानी की बूँदे डालकर उसको महकाया जा रहा हो। कभी वे हाथों से उसकी किनारियाँ बनाती तो कभी उस पर लगी गोबर और मिट्टी को पानी मे लिपटे कपड़े से नर्म कर देती।

ये ख़ाशियत भी हो सकती है उस कोने की और वही सवाँरना एक नक्काशी की तरह अपने ठिकानों को कोई ऐसा चेहरा बनाने की कोशिश उभरती जो किसी के अंदर के अहसासों को खोलने की चाहत रखता है।

ये चित्र कोई अंदेखे नहीं हैं और न ही ये कोई ऐसे दृश्य हैं जो याद रखे जाए मगर क्या ये ख़ुद मे खो जाने के जैसे नहीं है?

लख्मी

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