एक ऐसा रिश्ता जिसमें भले ही कुछ रौब या औदा भरा हो पर वो किसी न किसी समय में अपने आपको कुछ नये ही रूपों से हमारी भेंट करवाता है। तो इन रिश्तो को कैसे हम अपनी ज़िन्दगी मे सोचते है? और अपने रोज़ाना के चलते अनुभव में देखते है?
अपने ऐसे ही नये रूप के साथ वे मेरे पास में आये लम्बी-लम्बी सासें भरते हुए, ये यहाँ दक्षिणपुरी के उन लोगों में से हैं जो अपने बिताये समय मे किसी जगह को बहुत संभालकर रखते हैं। ताकि उसके हर बदलाव पर ये हक से कुछ बोल सकें। उन्होनें मुझे कुछ पेपर पकडाए जिनमें उनके बारे में कुछ लिखा था। ये लिखा हुआ उस समय का था जिससे महज़ वे अक्सर अपने घर के ही कुछ हिस्सो में सुनाया कर दिया करते थे और उसे सुनाते समय में अपने पूरे परिवार को समेट लेते। उन्हीं पलों को सोचते हुए उनकी एक ऐसी छवि उभरती की उनसे मिलने के अहसास में लगता जैसे मैं अकेला उनसे ही नहीं बल्कि कई अनेकों लोगों से मिला हूँ जिनमें कुछ अपना सा समाया हुआ वे अहसास है जो कभी किसी उन रास्ते पर भी नहीं दिखता जो लोग मन्जिल पाने अथवा बनाने के लिए चुनते हैं।
यहाँ पर मुझे उन्ही की कही कुछ लाइने याद आती हैं जिनको शायद मैं नहीं कई और जनों ने सुना है पर शायद किसी को याद न हो।
अपने हिस्से की ज़िन्दगी को बसाके।
अपने मन मुताबिक सपनों को सजाके।
अपनी हिम्मत और ताकत को जीने की जिद्द में अडाके।
कुछ अन्दर भड़कती जद्दोजहद से शहर की घटनाओं को डराके।
अपने लिए कल की कुछ तरकीबें, मनसूबें बनाके।
बिना चाहत के कामों में अपनी ज़िन्दगी को थोड़ा अलसाते।
किसी अटकती जिज्ञासू नज़र को शहर में दौड़ाते।
अपने अन्दर हर समय किसी न किसी रहती, इच्छा को अन्दर-बाहर के मनसूबों में अटकाके।
हर वक़्त किसी न किसी नज़र के घेरे में ताड़ते हुए अपने को फँसाके।
रहते, चलते कुछ बनाते, मनभावूक नज़रें, इच्छा और चाहत को पालते जीने की चाह में, चाव में, कल की तैयारी में लग जाते हैं कई हाथ-पावं। जिनमे हर वक़्त पूरे दिन का तौड़ और हाज़िर जवाब होता है। तभी वो अपने खुद के वक़्त को जीत पाते हैं।
मगर, किसके लिए कुछ साधन इख़्तयार करते हैं? जबकि मौज़ूदा समय, दिन के सोलह घन्टे, रहते-चलते अपने वज़न की मार हर समय ज़िन्दगी कि तस्वीर पर जा गिरती है। कहीं आने वाला समय अपना पूरा वज़न न डालदे? यही सोच है वो वज़न जो रोज़ गिरता है। वैसे देखा जाए तो कई अगल-अलग तरह की ज़िन्दगियाँ हैं और उनके रूप हैं। काफी कठोर, काफी तेज और काफी वज़नदार पर इसका कोई एक हिस्सा है जिसे बेहद हँसकर बिताना मुनासिब समझा जाता है। भले ही कितनी भारी लगे ज़िन्दगी लेकिन इस भटकती दुनिया पर यहाँ हर कोई जैसे कुछ सपने और खुशियों को पालता है और कुछ शौक भी रखता है। कहते हैं, "इतना कमाना भी किस काम का जब कोई शौक ही न हो तो?”
तभी एक-एक दिन को सजाकर बड़े पैमाने को छलकाने की ताकत रखता है और 'ज़िन्दगी चार दिन की ही तो है हँसकर जी लो' बस, इसी पर पूरी दुनिया बिताने की हिम्मत बटोरता रहता है। अब बात आती है इन चार दिनों के अन्दर चलती रोज़ाना की मार-धाड़ और हर समय बनते नये प्लान। इसमें क्या-क्या सोचता चलता है हर शख़्स? इसके लिए वो कई ऐसे माहौल तैयार करता है। जो इन सभी शौक, चाहत, पाने की कशिश को उपजाऊ बना सकें और अपने घर या ज़िन्दगी, इन पलों को सजाने और हमेशा बनाये रखने के वास्ते वे कोने तलाशता है।
यहाँ पर राधे श्याम जी ने अपना वो पेपर और उसमें अपने उस समय को दुहराना शुरू किया की कान उनके साथ में रवाना हो चले। ये उनकी ज़िन्दगी वो पहले शब्द थे जो वो शायद पहली बार लिखकर सुना रहे थे। आज उनके आगे उनका बेटा नहीं था बस, उनका वो हिस्सा था जो उनके पिछले समय के अहसास को बाँटने वाला हमनामा बना था। जो आज उनके उस दौर को जी रहा था। उन्होने अपने खुद के शब्दों मे अपनी उस पेटी के बारे में बोलना शुरु किया। जो उनके लिए वे जमापूजीं थी जिसकी जगह उनके पूरे घर में उनके हर रिश्ते से भी ज़्यादा मायने रखती थी। ये पेटी और उसके अन्दर के हर टुकड़े में उनका वे मान जुड़ा था जिसे वे कभी खुद से अलग सोच ही नहीं सकते थे। किसी माहौल, कार्यक्रम या ज़्ज़बात ही नहीं थे उसके अलावा ये एक ऐसी जिम्मेदारी थी जिससे कटा नहीं जा सकता था और न ही उसे अपने अल्लड़ शब्दों में रखा जा सकता था। आज भी वे उसे, उसमें कैद समय को खुद में समाये हुए है? उनमें लिखे हर ख़त की बुनियाद में ऐसे चित्र थे जिनको जरूरत की भाषा में तोला नहीं जा सकता था। ऐसा लगता था जैसे ख़तों मे उनके वे पल शामिल हैं जिनको खाली वही जी सकते हैं। हम तो केवल अंदाज़ा भर सकते हैं उन पलों के अहसास का।
ख़त जो सिमटे नहीं थे, ख़त जो उदास नहीं थे, ख़त जो हताश नहीं थे और ख़त जो भार नहीं थे। ये ख़त उनके जीवन में चाहतों के समंदर बनकर उनके बीच मे जी लेते थे। जिनमे कभी कहीं जाने का आसरा रहता तो कभी एक कहानी के साथ कुछ माँग होती। हर ख़त में जैसे कोई कहानी लिखकर इनको दे देता। तभी इनके ज़हन में उनकी अहमियत और गहरी रहती। वे कहते,
“मेरे लिए ये बक्सा, बक्सा नहीं है। मानलो उस समय तो मेरी ऐसी जिम्मेदारी थी की जैसे मैं इसे सम्भाल नहीं बल्कि इसमें कई लोगों के महिने, साल के कामों और सपनों को सम्भालकर रख रखा हूँ। इसमें लिखा एक-एक नाम, पैसा और शब्द किमती है, मायने रखता है आज भी। इसका एक-एक पन्ना मेरे लिए कई पन्नों की कहानी की तरह है जिसे मुझे याद रखनी हैं उम्र भर, जीवन भर। लोग चले गए तो क्या हुआ उनके सपनों के बनने के शुरूआती दिन आज भी इसमे दर्ज़ है और कमाई का एक-एक हिसाब भी। आप जानते नहीं हैं श्री मान कि इसके मायने क्या हैं? कैसे मीलों पैदल चलकर, काम करते थे और परिवार पालने के लिए पैसा कमाकर इसे रोज़ बनाते थे। हर रोज कोई न कोई छोटी से छोटी बात को एक अपने दिमाग में बड़ा करके उसे परेशानी बनाते थे और सभी के सामने रखते थे। हर रोज आती थी और लोग इसी के लिए पैसा ब्याज पर उठा लेते थे। बस, वही समय है इसमें। उनकी बहुत सारी दिक्कते हैं और बहुत सारे सपने हैं। जानते हो जब कोई ब्याज पर पैसा उठाने आता था। तो पहले दो-ढाई दिन तो ऐसे ही बातों में अपनी परेशानी को जाहिर करता था। इस तरीके से की किसी को ख़ास पता न चले बस, इतमा गुमा हो जाए कि इस बार इसे ब्याज पर पैसा चाहिये। यह है उस बक्से में। एक बात और लोग मुझे "खजानची" कहते थे। कहते क्या थे मुझे उसका पद दिया था उन्होनें। तो सभी के परिवारों की कल कि इच्छाएँ सहेजकर रखना मेरा काम भी था और जिम्मेदारी भी। अब पता नहीं वो सभी लोग कहाँ होगें? मगर आज भी तो इस बक्से में कहीं होगें जरूर। बाइचाँस कोई अगर आ जाए तो मैं उन्हे ये दिखा तो सकता हूँ। हमारी गली के लोग या हम चाहे उन्हे भूल गए हो पर ये बक्सा तो कभी नहीं उन्हे भूलेगा। क्योंकि पैसा लेते समय और वापस देते समय इसमे लिखी अर्ज़ियों मे वो सारी दिक्कतें और वज़हें, सपनें, इच्छाएँ खुद से लिखे शब्दों में बसी हैं। जो इसके अन्दर कहीं तो है और वो क्या कहते है गूँजती है।"
समय जैसे चमक रहा था उसके ढकने में।
समय ज़ंग खाया था ऊपर-नीचे के तलवे में।
समय सूखा था मोहर की पड़ी महरूम सी डब्बी में।
समय उछल रहा था छोटे काग़जो के टुकड़ो में।
समय चिपका था तले से लगे पेपरों में।
समय अकड़ा था फाइलों में अड़े काग़जो में।
समय अटका था गुड़मुड़ी पड़े काले कार्बन पेपरों में।
समय रंगा था स्टेम्प की ख़ुर्दरी लाइनों में।
समय टिका था टिकट पर पड़े अँगूठाई निशानों में।
समय ठुसा था नीली सी पन्नी में भरी बिलबुको में।
समय छन गया था चूहों की कुतरी पनशनी, कागज़ों के छेदो में।
समय सम्भाला था रजिस्टरों और फाइलों के ऊपर बधीं छोटी-छोटी डोरियों में।
समय गूँज रहा था फाइलों और रजिस्टरों में लिखे अलग-अलग नामों में।
समय धूँधलाया था गत्तो में कवरपेज पर लिखे मानो से उड़ती गाढ़ेपन कि चकम में।
समय फैला था बिलबुक से काटी गई पर्चियों में।
समय खुद को दोहराया सा था कुछ सरकारी महकमों के दस्तावेजों में।
समय बेबसा सा था रजिस्टरों से आज़ाद होती बाईडिगों में।
समय जिज्ञासू सा अलग-अलग पन्नों पर लिखी अर्जियों में।
समय मान था उधार चुकाते शब्दों में।
समय पाबंद था उनमें पड़ी तारीखों में।
समय भीड़ था कई अलग-अलग पन्नों में छपे हस्ताक्षरों के प्रतिबिम्बों में।
समय ताकत था अन्दर कई नामों के अन्तर्राल बने रिश्ते में।
समय जिद्द था कई जाने-पहचाने नियमों में।
समय जिम्मेदारी था इसमे समय को महफूज़ रखने में।
उनकी ज़ुबाँ से निकलने वाले लोग अब कई कहानियों मे शामिल उनके बोलो में अटक गए हैं। वे लोग तो हैं नहीं मगर, उनकी छाप मौज़ूद है। अभी कई कहानियाँ बाकी हैं उनके अन्दर।
लख्मी
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