मैं रोज़ जगता हूँ अलसाते हुए
न जाने मेरे अरमाँ चहकते से जगते क्यों है
कभी मन करता है कि दुनिया को आँखें बन्द करके देखूँ
मगर न जाने लोग आँख खोले चलते क्यों है
शहर दौड़ा जा रहा है न जाने कहाँ के लिए
फिर भी ज़िन्दगी इतनी आहिस्ता सी दिखती क्यों है
रोज़ निकलती है दिल से सबके कल्पना कहीं उड़ जाने की
पर न जाने हाथ किसी पँख की तरह फड़फड़ाते क्यों नहीं है
रोज़ सुबह को जाना, शाम में फिर वापस आना।
पहिया इसी मे घूमता है हर दम पर जाने क्यों लोग इससे अलसाते क्यों नहीं है
ढेहरों बातें हैं समाई दिल-ए-गुलिस्ताँ में।
फिर भी लोग एक-दूसरे को बतलाते क्यों नहीं हैं
अनेकों साथी बैठे हैं किसी के इंतजार में
लोग उनको हाथ बढ़ाकर उठाते क्यों नहीं है।
मैं रोज़ जगता हूँ अलसाते हुए
न जाने मेरे अरमाँ चहकते से जगते क्यों है
दिनॉक- 12/03/2009, समय- रात 8:00 बजे
लख्मी
2 comments:
सुन्दर कविता है।
लगता है कि आप हिन्दी फीड एग्रगेटर के साथ पंजीकृत नहीं हैं यदि यह सच है तो उनके साथ अपने चिट्ठे को अवश्य पंजीकृत करा लें। बहुत से लोग आपके कविताओं और लेखों का आनन्द ले पायेंगे। हिन्दी फीड एग्रगेटर की सूची यहां है।
कृपया वर्ड वेरीफिकेशन हटा लें। यह न केवल मेरी उम्र के लोगों को तंग करता है पर लोगों को टिप्पणी करने से भी हतोत्साहित करता है। इसकी जगह कमेंट मॉडरेशन का विकल्प ले लें।
शुक्रिया उन्मुक्त,
मैं जरूर करूँगा, लेकिन उससे पहले हमारी कोशिश है कि शहर में मौज़ूद कई ऐसे पाठको के संवाद बनाया जाये जिससे शहर को देखने के और नये रचनात्मक नज़रिये उभर सकें।
एक ऐसा माहौल बनाया जाये जिनमें ख़ास तरह का रिश्ता बन सकें।
आपका इस माहौल मे स्वागत है।
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