Sunday, December 7, 2008

तस्वीरों की दुनिया मे होश कहाँ

जब किसी जगह में वक़्त अपना फेरा लगाता है तो उसके चलते चक्र में हर कड़ी अपनी एक नई और ताज़ी रूपरेखा बनाती चलती है। उसी मे उभरती हैं कुछ तस्वीरें, जो हमारे साथ याद और वक़्त का खेल खेलती हैं। कभी सोचा है कि तस्वीरें क्या करती हैं हमारी ज़िन्दगी में?

ये सवाल एक ऐसा पहलू है जिसे हम अपने से कभी भी दूर कर देते हैं। नहीं तो हम शायद ये समझ पाते की लोग शादी के बाद भी अपनी तस्वीर अपने कमरे में क्यों लगाकर रखते हैं?

खैर, इन तस्वीरों की दस्तक होते ही ये हमें अपनी एक दुनियाँ का मुख़ड़ा नज़र देखने लगती है। ये दुनियाँ कल्पना और हकिकत पर एक प्रश्न चिन्ह भी है। जिसे लेकर हर आवाज़ अपने समय को चुनौती देती है। क्या हम इस चुनौती को समझ पाये हैं? इस दुनियाँ मे अलग-अलग बनावटों और पहचानों में मालूम पड़ते मुखौटे कोई नकारात्मक छवि लिए नहीं होते लेकिन आम ज़िन्दगी से जुड़े होते हैं। इन मुखौटो की अंधरुनी छवियाँ बनाने में भरे जाने वाले पल आम जीवन में मानने या करने को कहते हैं। इसमें नज़र की शिरकत भी शामिल होती है। जो किसी पर पड़ते ही अपना काम कर लेती है।

ये नज़रें शायद तिलस्मी है, इनमे कोई जादू है या फिर उस आवाज़ की तरह हैं जिसके उठने पर आर्कषित करने वाली रेखाएँ दिखाई नहीं देती। लेकिन कोई निशान पकड़ लेती हैं। जो नज़र एक भाव की तरह उठती और अपने बहुत कम वक़्त में कई छवियों, यादों और वक़्त के नाज़ुकपन को अपने मे समा लेती है।

तस्वीरों की दुनियाँ मे कई मुखौटे हैं, जो शायद या तो हमारे हैं या हमारे किसी रिश्ते के, वे या तो हमने खुद बनाये हैं या हमें किसी बनाकर दिये हैं। ये छवियाँ क्या हैं जिन्हे हम रोज जीते हैं? ये मुखौटे क्या हैं?

मुखौटों का शहर अपनी शुरूआती या बाद वाली गती में चलता है और जो नज़र उठा लेता है। धीरे-धीरे वे एक ठहराव बन जाता है। मगर जब हम उस ठहराव को दोहराएगें तो वो नहीं होगा या वे वो नहीं लगेगा जो वो है? पर क्यों? क्या तज़ुर्बे और नये ढ़ंग होगें जो उस बना लिए गए ठहराव में होती याद, छवी और वक़्त की आवाज को गती दे सकें? जिसे हम तस्वीर कहते हैं।

कोई भी तस्वीर अपनी बैचेनी को एक ही दायरे में नहीं रखती। वे तस्वीर की बैचेनी हँसी मे, उदारता मे, खौफ़ मे, डर मे, मज़े मे, अदा मे और ना जाने कितने और भावों मे शिरकत करती है। उसके साथ-साथ ही वे याद को एक कल्पना से होकर कोई जगह बनाने की की कोशिस करती है।

किसी गती को ठहराकर उसमे जगह का कोई दर्शन होना क्या है? मेरे ख़्याल से एक-एक कड़ी में दिखा पाने कि कोशिश होती है। हर तस्वीर अलग-अलग तरह बैचेनी बयाँ करती है या कोई ना कोई भाव लिए होती है। जो नज़र के दिखने और मानने का एक खेल खेलती है। हर नज़र तस्वीर पर अपनी कोई ख़ास रेखा छोड़ती है। और अपनी वापसी मे कुछ सुन्दर या भयानक भाव को उठा लेती है या फिर तीसरा अन्य कोई जो है भी और नहीं भी, लेकिन देखने मे बनी एक कल्पना को आकृती मे रची गई सूरत मान कर चलती है। ये सब एक तरह की नज़र ही हैं।

हमारी ये पहले से समझी गई कोई छवी है जिस के अन्दर कुछ टूटे या अदबने टुकड़े हैं जिन्हे हम ये कह सकते हैं। कितनी तरह की नज़र तस्वीर पर गिरी और उन तस्वीरों में से बाहर झाँकने वाली कितने तरह की नज़रे थी? जो अपने इस्टाइल और जमे हुए इरादों के साथ एक भाव पूर्ण फोर्स लेकर रुक जाती हैं। जो असल मे गतीशील भी होती हैं और उनका ठहराव भी कुछ-कुछ समझ मे आता है। अगर कुछ नहीं आता तो उसमे तस्वीर ही गवाही देती है की ये जो टुकड़े हैं। असलियत मे ये एक आकार नहीं। वो कोई असीम दायरा है जो अपने किसी हिस्से को सामने लाकर रखता है।

ये एक घुमी हुई सोच है, जिसे मैं कभी समझ लेता हूँ तो कभी नकार देता हूँ। लेकिन तस्वीर के अन्दर की दुनिया मुझे भावों के अलावा एक ऐसी दुनिया दिखाती है जो खेल ही है। कोई तस्वीर को महज़ देखता है, कोई तस्वीर को पढ़ता है, कोई तस्वीर को यादों से तोलता है तो कोई तस्वीर को महज़ नज़र भर कर देखता हैं। किसी के लिए तस्वीर याद है, किसी के लिए तस्वीर अहसास है तो किसी के लिए तस्वीर कोई ख़ास रिश्ता। जिसे वे अपने से दूर नहीं कर सकता।

लेकिन असल मे ये है क्या?

मेरे सामने एक बार एक शख़्स ने सवाल किया, उन्होने पूछा, तस्वीर याद रखने के लिए होती है या याद से लड़ने के लिए?

मेरे लिए ये सवाल किसी मजबूत दीवार की भांति था। जो कई बार अपने घर मे लगी तस्वीरों को देखने के बाद भी नहीं समझ पाया। जब लगा की तस्वीर की दुनिया ज़िन्दगी पर अपना अक्स छोड़ती है। वे नज़र से समबंध रखती है।

क्या आपने कभी इस सवाल को सोचा है? मैं अक्सर सोचता हूँ कि तस्वीर को अगर सुना जाये तो उसकी आवाज़ क्या होगी?

राकेश

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