Tuesday, December 16, 2008

रोज़मर्रा, इन्हे कौन दोहरायेगा

समय की परतों में घुली-मिली याद्दाश्त को लेकर हम अपनी कार्य क्षमता को दूसरे के शरीर मे धकेलते हुए चलते हैं। जीवित और अजीवित कणों को छोड़ते हुए। ये सोचना बड़ा विचित्र सा लगता है, हैं ना! अन्दर और बाहर इस से ज़्यादा शायद कुछ और हो? लेकिन इन दोनों के बीच दो तरह की रेखाएं होती है, चाहें वे धातु हो या अधातु, वो वास्तविक हो या अवास्तविक, इन्हे शुरू होते हुए कहीं से भी देख सकते हैं।

इस का अंत कहीं पर आ कर ठहरना हो सकता है। दोनों को पता है की इतनी दूरी जरूरी है? दोनों रेखाओं का रिश्ता न जुड़े होने पर भी जुड़ा सा लगता है या शायद उन्हे कोई अन्य सम्बध जोड़े हुए है। दोनों एक-दूसरे को देखती हैं, समझती हैं। जब तक बन रही है। तब तक चलते जाना है। अगर कहीं ख़त्म हो भी तो उसकी तरह कोई और रेखाएं जीवित होकर कोई और फैलती हुई अपनी जगह बना ही लेती है।


बात शुरूआत और अन्त की ही नहीं है जिसे सुनकर मन की कल्पना ढगमगाने लगें। अजीवित और जीवीत से कल्पना करके एक संकल्प बनाने की "चाहत" सी पैदा होती है। जो बनती और टूटती रहती है, मगर उसे फिर एक और बार, फिर एक और बार दोहराने की जिद्द़ हमेशा कोई न कोई लिए ही चलता है।

मान लेते हैं, इसमे कुछ ख्वाइशे और इरादों को धारण करते हैं लोग मगर कैसे? अपनी-अपनी मह्तवकांक्षाओं को पूरा करने मे, नये और नये करने कराने की प्रक्रिया को बनाते जाते हैं। जिसमे वे अपना जीवन व्यतित करते हैं। तीर की तरह निकल जाने वाला एक शरीर जिसका दोबारा आना या एक फोर्स़ का दोबारा आना कैसे हो सकता है? वो क्या हो सकता है? ये कभी सोचा है? शायद जिस का अन्दाजा लगाना मुश्किल होगा। जो एक ख़्याली सरहद को भेदना सा होता है। इसे ऐसे ही लेकर चलना होता है। दूरी उस के लिए कुछ समय मे ही पँहुचकर निशाँ बना देने वाली चिह्न की तरह होती है और एक ज़मीन से उठकर हवा में तैरते छोटे-छोटे, बिन्दुओ की तरह के कण को, एक कल्पना की उड़ान को ताकत देकर कोई आकृति को बनाने या सोचने मे लग जाती है।

भिन्नता हो या फिर अभिन्नता इनको बाँटने के बजाएं इनको एक समझ प्रदान करती है। इन्हे सोचने या ग्रहन करने वाले अपने अन्य प्रकार के द्वारों को खुला रखते हैं शायद किसी ख़ास न्यौते के इन्तजार मे। इसमे गिरने वाले बारिक और औझल रिश्तों के तीर की तरह शरीर मे समाते , शब्द, भाषा, वक़्त और याद्दाश्त हमें निखारती और बनाती जाती है।

ये क्या सोचने के बिन्दू है?, इसे बौखलाहट के स्वरूप क्यों माना जाता है। क्या जिसमे कोई शख़्सियत और बोल नहीं होते वे भिन्नता और अभिन्नता के आधिन होते हैं? ये क्या सवाल हैं जो कभी दोहराये नहीं जाते? इन्हे कौन दोहरायेगा?

राकेश

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