Friday, December 12, 2008

एक हाथ दो और एक हाथ लो!

ह़फ़्ते में शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जिस दिन बिमला जी घर मे' कुछ खोज ना रही हो! अक्सर पलंग के अन्दर से चावलो के कट्टे में रखे बर्तनो को निकालकर वे घण्टा भर उन्हे ख़कोरती रहती। कटोरियाँ अलग, ग्लास अलग और प्लेटें, चम्मच, थाल सबके अलग-अलग चिट्ठे बनाकर उन्हे गिनती रहती और अपने में कोई हिसाब लगाकर उसे वापस उसी बोरी मे बड़ी सहजता से रख देती। मगर यह देखना और ख़कोरना यहीं पर थम नहीं जाता यहाँ से तो शुरू होता है। हर वक़्त उनके कान उस आवाज को सुनने की लालसा करते हैं जिसमे कुछ अदला-बदली के ओफ़र हो। कुछ लिया जाये और कुछ दिया जाये। वो इस बात पर हमेशा कहती हैं, “यह सारे बर्तन बेटी की शादी मे काम आयेगें कन्यादान देने के लिए।"

आज भी कुछ ऐसा ही दिन था। होली चली गई थी पर कई ऐसी चीजें छोड़ गई थी जिनका उपयोग किया जा सकता था। एक भी होली खेला कपड़ा ऐसा नहीं था जो बेकार हो। सुबह ही उन्होनें एक-एक कपड़ा एक कोने में जमा कर दिया था। कमीज़, पेन्ट, सूट और साड़ी सब कुछ और तो और जूतें भी। अलमारी खोलकर सारे कपड़े बाहर निकाल कर उनमे कुछ तलाश रही थी। तलाशते-तलाशते बात भी ऐसी कहती के किसी को बुरा ना लगे। "चलो भई आज अलमारी मे से गर्म कपड़े रखुगीं तो बता दो क्या रखना है और क्या नहीं?”

कई तो ऐसे कपड़े हैं जो पहने नहीं जाते मगर फिर भी रख रखे हैं क्या होगा उनका? एक-एक कपड़ा हाथ मे उठातीं और कहती, "यह नीली पेन्ट पहनता है कोई?” पहले तो कोई भी आवाज़ नहीं आती पर यही बात दो या तीन बार निकलती तो पीछे से कोई भी बोल उठता। पीछे बैठे श्याम लाल जी बोले, “उसे रख दे अभी सही है वो।" ये सुनकर वे बोली, "पहनते तो कभी नहीं देखा आपको।" श्याम लाल जी बोले,"तेरे को पता है कुछ कपड़े ख़ास मके पर पहनी जाते हैं। अपनी साड़ी क्यों नहीं देती?” वे ये दोहराती हुई बोली, "बस उल्टी बात करवालों आपसे तो।"

यह कहती हुई बिमला जी किन्ही और कपड़ो को छाटने लगी। यही लड़ाई घर मे अक्सर होती रहती है। पर जिन कपड़ो को आज घर से जाना होता वो तो जायेगें ही चाहें कुछ भी हो जाये। तभी गली मे ग्लासों को टकराने की आवाज आई। एक शख़्स अपनी चारों उगंलियों मे शीसे के ग्लास अड़ाकर उन्हे बजाता आ रहा था। यह आवाज़ इतनी अलग और शार्प थी के बिमला जी के कानों से ना टकराई हो, ये हो ही नहीं सकता। वो वहीं खड़े-खड़े आवाज़ कसती, “ओ भईया बर्तन वाले रुक जा जरा।" एक आवाज़ का दूसरी आवाज़ के साथ कॉनटेक्ट बिलकुल नज़दीक था चाहें कितना ही शौर हो आसपास मगर सुनना तो सुनना होता है। दरवाजे पर ही उसने एक कपड़ों से लदी पोटली को अपने काधों से नीचे उतार कर रखा। सिर पर से बर्तनो का टोकरा भी एक ही साइड मे खिसका दिया और हाथ में पकड़े बाल्टी और टब को दोनों को सामने रख दिया। दरवाजे पर ही उसने अपना छोटा सा ठिया जमा लिय।

बिमला जी ने कहा, “कितने कपड़ों में दोगे यह टब?”

बर्तन वाला बोला, “कपड़े तो दिखाईये बहन जी।"

बिमला जी बोली, “पहले बताओ तो सही तभी तो निकालूगीं ना।"

बर्तन वाला बोला, “टब तो सात कपड़ो में दूगां, पर सही हो तो फटे ना हो।"

बिमला जी अन्दर जाते-जाते थोड़ा एठ में बोली, “हाँ-हाँ हम तो पागल हैं जो फटे हुए कपड़े देगें तुम्हारे को।"

बस बिमला जी ने सारे होली के कपड़े उसके आगे लाकर पटक दिए और वहीं पर बैठ गई। वो अब एक-एक कपड़े को उठाता और पूरी नज़र भरता। जब, ज़िप, मोहरी, पीछे का भाग, फॉल, बटन, सिलाई, बाजू सब का सब एक-एक करके छूकर देखता और पूरी गुंजाइस करके बोला, "सारे होली के है?”

बिमला जी उसकी तरफ़ मे नज़र को गाड़कर बोली, "हाँ वो तो हैं तो क्या भईया नये दूं?”

वो फिर से कपड़ों में हाथ फिराता बोला, “कोई साफ़ कपड़ा नहीं होगा बहन जी? इनपर से तो रंग भी नहीं उतरेगा और अन्दर तक रंग गया है। इसे तो उल्टा करके भी नहीं बनाया जा सकता।"

बिमला जी बोली, "अब मुझे तो पता नहीं पर मेरे पास में जो पहले पुराने कपड़े थे उसकी तो मैंने दरी बनवाली यही है। बस, इनमे देना है तो दे दो।"

वो एक बार फिर से कपड़ों में हाथ घुसाता और बोला, “इनमे टब तो नहीं आ सकता बहन जी ग्लास ले लो।"

बिमला जी उसका मन देखते हुए बोली, "नहीं-नहीं भईया चाहिये तो टब ही ना!”

वो बोला, "तो एक दो कपड़े और हो या कोई पेन्ट ले आईये साफ़ सी।"

ये सुनकर बोली, "अरे भईया आठ कपड़े तो है यह?”

बर्तन वाला बोला, "हाँ जी पर सारे के सारे रंग हैं। एक-दो कपड़े तो साफ़ हो ना!”

बिमला जी बोली, "ठीक है भईया देखती हूँ।"

वो घर मे आ‌वाज़ लगाती हुई बोली, “अरे सुनते हो कोई पेन्ट है जो पहनते नहीं?”

अन्दर से कोई आवाज़ नहीं आई। उन्होंने फिर से यही आवाज़ लगाई, "अरे ना सुन रहे क्या? दो पेन्ट या कमीज़।"

अन्दर से अबकी बार एक आवाज़ आई, "मेरे पास मे नहीं है बिमला कहाँ से दूँ? यह जो पहनी है यह दे दूँ?"

यह सुनकर उनका दिमाग घर में घूमने लगा और वो "रूक जा भईया" कहकर छत पर चली गई। वहाँ पर उन्होंने एक बड़ी पोटली रखी थी जिमने से कुछ कपड़े गाँव मे भेजने थे। बस, उन्ही मे से कुछ कपड़े वो निकाल कर ले आई। भईया को देती हुई बोली, “अब नहीं है भईया इन्ही मे दे दो।"

उसने कपड़े देखे और टब उनके दरवाजे की तरफ़ मे खिसका दिया पर बिमला जी की नज़र उस टब से हटकर उसके टोकरे मे रखे बर्तनो पर थी। जिनको देखकर वो शायद कपड़े गीन रही होगी। शायद किसी बर्तन की जरूरत है यह भी अभी तक उन्हो'ने सोच ली होगी। 'लोहे की कढ़ाई चाहिये', 'एक फ्राईफैन चाहिये', 'एक टीफीन चाहिये', बारह कटोरियाँ और चाहिये। ना जाने कितने बर्तन और घूम गए होगें उनके जहन मे। अब तक तो जैसे एक और कपड़ो की अलमारी बन गई होगी उनके दिमाग मे।

वो शख़्स इन कपड़ो को अपनी पोटली मे जब तक कसता तब तक तो बिमला जी कई बर्तनो को छू चुकी होगी। उसमे अपने टोकरे को अपने सिर पर रख लिया और जाने लगा जाते-जाते बिमला जी बोली, “भईया यह बाल्टी कितने कपड़ो में दोगें?”

खेल दोबारा शुरू था। घर कपड़ो से भरा नज़र आने लगा था।


लख्मी

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