Tuesday, December 16, 2008

इन गीतों की उम्र बहुत है

आस-पड़ोस मौहल्लो में होने वाले तीज़-त्यौहार ऐसे ही बितते रहते हैं। जिनमे कई अलग-अलग तरह के माहौल बनाये जाते हैं। जिन माहौल की सबसे बड़ी ख़ासियत यह होती है कि वे किसी एक घर के रिवाज़ों से बंधे नहीं होते। वह तो झूमते ही है माहौल मे आने वाले हर रीति-रिवाज़ों मे।

दक्षिण पुरी मे भी एक वक़्त था जब यह माहौल बड़े धूम-धाम से फैलाए जाते थे। जिनसे पता चल जाता था कि ये कितने लोगों, परिवारों, रिवाज़ों के समूह से बने हैं। गीत, लोकगीत, लेडिस गीत-संगीत, ढोलक की थाप, चीम्टो की आवाज और थालियों की आवाज़ें इन माहौलों की रौनक बड़ाती थी। मगर धीरे-धीरे जैसे ये किसी किनारे लगते जा रहे है। इसके बावज़ूद भी एक चीज है जो बच गई है जिससे माहौल को जमाया और नचाया जाता है जिसको ज़ुबानों ने पकड़ लिया है। वह है लोकगीत। इनकी आज भी बेहद गहरी छाप है। कई ऐसे लोकगीत आज भी हमारे बीच छुपे हैं। जिनको मुँह ज़ुबानी, गाया और बाँटा जाता है। एक मुँह से दूसरे मुँह तक जाकर ये फैले हैं।


इसी फैलाव से ये कई जगहों मे अपनी छाप छोड़ पाए हैं। इन्ही छापों को जमा करने का अन्दाज़ क्या हो सकता है ये पता है किसी को? एक लड़की के बारे मे सुना। जिसकी शादी अभी हाल-फिलहाल मे हुई है। जिसका ससुराल दक्षिण पुरी मे है। कह सकते हैं कि वे यहाँ की नई-नई दुल्हन है। वे अपनी शादी मे कई समानों के साथ मे एक चीज और ले आई थी। जिसे देखकर उसके ससुराल मे किसी ने कुछ नहीं कहा। जैसा हर समान को देखकर कहा था कि टीवी यहाँ रख दे या पलंग यहाँ रख दे। वैसा कुछ नहीं कहा था उस चीज को देखकर। वो चीज थी। कई कटे-साबूत रजिस्टर। सुनिता जी को इन लोकगीतों को लिखना बहुत अच्छा और सुख देता है। उनके रजिस्टरों में ऐसे ही कई गुमनाम गीतों की भरमार है। जिसका एक-एक पन्ना अपनी ही दास्ताँ कहता है।


उनके रजिस्टर की शूरूआत होती है, “बन्ना तेरी दादी बड़ी ये होशियार, हमसे हटकर, पलंग से हटकर बिछाली रे अपनी ख़ाट।"


इन सभी पन्नों की उम्र सात से आठ साल से कम नहीं थी। उन्होंने अपने गीत से पहले वो भी लिखा हुआ है जहाँ पर वह गाए गए हैं। गली में और अपनी शादी में इन माहौल मे बैठ-बैठ कर उन्होंने इन गीतों को लिखा है। उनके रजिस्टरों मे लगभग एक सो पचास गीत होगें। जो उन्होंने खुद लिखे हैं। पहले जब वे शादियों के इन माहौलो में जाती थी तो खाली किसी के गाते हुए गीत के पीछे उन आवाजों मे अपनी आवाज मिलाती थी जो उस गीत के लिए कोरस का काम करती है। ये काम वे लोग करते हैं जिनको ज़्यादातर गीत आते नहीं हैं। ये इन माहौलो की रौनक होते है - नवरात्रे, लड़का होने पर, होली पर, शादी मे । इन सभी माहौलो और अवसरों मे जाकर-जाकर उन्होंने सुना और घर वापस आकर उस गीत को गुनगुनाकर उसे अपने रजिस्टर मे उतार दिया।

वो बताती रही थी कि कितनी बार तो सुनिता जी रिकार्ड करके भी लिखा करती थी। आज वे सभी गीतों को गा सकती है। ये गीत खाली उनके रजिस्टरों में ही नहीं रखे रहे हैं। ये उनकी ज़ुबान पर भी सजे हैं। रोजाना सुबह उनके कमरे मे से बर्तनो की आवाजों से साथ उनकी भी आवाज आती है। इन्ही गीतों की वर्णमाला को उन्होंने अपने मे समाया हुआ है। उनकी ज़ुबान पर उन्हीं से जुड़ी लाइने रखी रहती है। अब तो वे गीतों में अपनी ही नई लाइन रखकर उसे और मज़ेदार बना डालता है और लोग कुसनकर बड़ी चुश्कियाँ भरते है।


वे कभी-कभी हँसकर कहती है, “काश मेरे पास इन गीतों की कैसेट होती तो कितना मज़ा आता और जिसमे इन्ही औरतों की आवाज भी होती।"


दिनॉक:- 11 नम्बर 2008, समय:- दोपहर 4:00 बजे

लख्मी

1 comment:

एस. बी. सिंह said...

बहुत अच्छा प्रयास अपने गीतों अपनी संस्कृति को बचाए रखने का। सुनीता जी को बधाई और आप को भी।