Tuesday, December 23, 2008

तिरछी नज़र का खेल है ये सब

हम अपने अन्दर क्या लिए चल रहे हैं और बाहर क्या? हमें हमारे अन्दर का अहसास कब होता है? वे महज़ हमारे लिए होता है या उसका कोई फैलाव है? हम जो भी अहसास करते हैं उसकी ताकत क्या होती है?

एक वक़्त के लिए मान लेते हैं, चाहत और कल्पना, जिसमे कई इस तरह के ढाँचे तैयार हुए हैं। जिनका बनना कभी भी दिमाग मे नहीं होता। उनका आधार और रूप सब कुछ अन्देखा होता है। ये एक दायरा भी हो सकता है सोचने का, लेकिन अपनी सोच से बाहर निकलना क्या इसका दायरा बड़ा कर देता है और कल्पना को मजबूत?

अभी के वक़्त पर खड़े होकर हम चाहत करते हैं पीछे जाने की जैसे कहते हैं, गुज़रा वक़्त ही बड़िया था कोई टेंशन नहीं थी।" या फिर कभी-कभी तो इससे उलटा ही देखने की कल्पना करने लगते हैं जैसे, अभी के समय मे खड़े हम आगे की सोचते हैं। ये सोच तो फेमस है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ हमसे पहले ही हमारे आने वाले वक़्त के बारे मे सोच लेती हैं। फिर हमें बताती हैं कि हमें क्या करना है। लेकिन हम अपने अतीत को अपनी ताकत मानकर चलते हैं। दुनिया मे बहुत बार सुना है, “इसका बैकग्राउंड बहुत धांसू है।" ये लाइन हमें कहाँ ले जाती है?

कल्पनाओ का पैमाना बनता आया है हम मानते हैं। वे कभी अपनी अन्दरूनी हदों मे होती है तो कभी उसकी झलक कहीं देखी हुई सी लगती है। मगर जब उसपर सवाल उठते हैं तो वे आधारित करना मुश्किल लगता है। जिसके दायरे तो कभी बाँधा हुआ या खोला हुआ तो नहीं होता, जिसे अपने हाथों मे दिखाया जा सकें। बस, वे सब कुछ दिमाग मे घुमता रहता है जो कभी बाहर भी आ गया तो लगता है कि कोई अविस्कार हो गया हो। ये सब मन के अन्दर के चित्र ही तो हैं जिन्हे देखने के लिए कभी अपने अन्दर झाँकने की इच्छा होती है तो कभी अपने से दूर जाने की। कल्पना का रिश्ता जुड़ा है उन चित्रों से जिसे देखना चाहते हैं, मगर जब वे चित्र कहीं नहीं नज़र आते तो वे क्या हैं? उन्हे दोहराने के तरीके क्या हैं?

अब हम बात करते हैं चाहत की, मान लेते हैं कि मेरी चाहत मे अगर "कहीं" शब्द रखकर देखूँ तो क्या बना पाऊंगा? ये मुझे क्या सकेंत देगा? इसका मतलब क्या है? ये कोई सोचने लायक सवाल नहीं है, लेकिन फिर हम अपनी कल्पना को किन अवधारणाओ मे देखें?

"काश ऐसा होता" ये लाइन कई बार सुनी है, जो कुछ माहौल को, जगहों को अपने मुताबिक बनाने की अपेक्षा रखती है। पर क्या हमें पता है कि ये अपने मुताबिक होना क्या है?

हमारे बीते और आने वाले समय को एक नये चित्रों मे देखने की लय को हम अपने अन्दर लिए चलते हैं। जिसमे हम कई अलग-अलग समय को एक कनैक्शन मे बाँधने की कोशिस करते हैं। वे आने वाली तस्वीरें ना तो मनगढ़ंत होती और ना ही खाली कल्पना कि हुई छवियाँ। उसमे कुछ अहसास ऐसे होते हैं जो चल रहे समय से चुने हुए होते हैं। जिनको किन्ही चिन्हों से बताया जा सकता है।उन्ही चिन्हों मे घुले-मिले रहना ही हमारी चाहतों को उजागर करता है। जिसमे हमारी आसपास की कई ऐसी जगहें उभर कर आती है जिसे हम हर रोज़ देखकर अन्देखा करते हुए चलते हैं। वे आवाजें होती है जिसे सुनकर भी अन्सुना कर दिया जाता है। ये चाहतें वे वैकल्प देती हैं, नज़रिये देती हैं जिनको अपने से बाहर के रिश्तों और अपने जीने के तरीको को समझने की भरपूर कोशिस होती है। हमारे आसपास मे कई ऐसे माहौल व अवसर रहे हैं जिनके दायरे, सीमाए इतनी कठोर होती है जिनमे घुसना तय नहीं होता, वे सिर्फ़ उन स्थिति की तरह होती है जो शायद कंपयूटर भाषा मे "रीड ओनली" कहते हैं। हम उ न्हे पढ़ सकते हैं पर अपना कोई जीवन का पात्र उसमे नहीं रख सकतें। वे हमारे से किस तरह के जुड़ाव मे होती है?

कुछ कर नहीं पाये या चाहते हैं कि कोई उंगली पकड़े और उसी मे कई ऐसे माहौल व जगह तैयार हो जाये जो सिर्फ़ मेरे लिए हो। जिसमे कुछ पल का ठहराव मेरे जीवन के उन हिस्सो को दिखा सके जिन्हे मैं एक झटके मे छोड़ आया था या उन अवसरों मे मुझे लेकर जाये जिनमे मैं खुलना चाहता था पर किन्ही रिश्तों मे फँसा रह गया था। वे सभी राहें खुल जाये जो आज भी अपने कदमों के निशान कहीं छोड़ गई हैं। उन्ही से वे सभी याद आती हैं।
ये सब वे चाहतें हैं जो आज के बीत रहे समय के बीच मे खड़ी हैं और इन्तजार कर रही हैं तस्वीरें पाने को। ये सभी तस्वीरें कोई मनगढ़ंत नहीं है ये सभी मेरे से बाहर बह रहे चित्रों को दिखाती है, खोलती है, जुड़ती है, ठहरती है और मेरे साथ उड़ान मे रहना चाहती है। जो मेरे अनुभव मे भले ही ना हो लेकिन मैं इनके अनुभव का हिस्सा हूँ।

हम एक जगह पर खड़े बस, चलते हुए समय को निहारते रहते हैं। उसमे होते खेल को देखते रहते हैं। कभी उसमे घुसते हैं तो कभी झटक कर बाहर आ जाते हैं। ये बाहर निकल कर आना कई अन्य तरह के एक्शन को बनाता है। इसके भी दो तरह के रूप हैं, जैसे कभी ये उछलना होता है तो कभी नज़रे चुराना तो कभी हम एक ऐसी तिरछी नज़र बना लेते हैं जिससे कई जगहों से नाता रख पाये। ये नज़र हमारे रिश्तों और कामों से हमें अलग नज़रिया देती है। जो हम खुद से बनाते हैं।

ये सब तिरछी नज़र का खेल है, जो हमें एक जगह से दूसरी जगह का हिस्सेदार बनाता है। हमें जगह चुनने की कोशिस देता है। रूप बदलने को कहता है और इन्ही के बीच मे हमें अपना नया रॉल बनाने की उम्मीद देता है। अपनी यादों मे जाना, अनुभव का बख़ान करना, आगे के चित्र बनाना ये सब नये पैमानो को खोलता है।

शहर इस नज़र के घेरे मे आने को तैयार है, शायद हम अपने अन्दर को जानने की कोशिस मे वो अन्दर कैसे बना उसे भूल जाते हैं। उसका नज़रिया क्या है?, वे कैसे चीजों को देखता है?, सुनने के कान क्या है?, बोलने के शब्द क्या हैं?, दोहराने के तरीके क्या हैं? और ये सब कैसे उभरते हैं वे सब अपने से गायब कर देते हैं। ये कैसे बता पायेगें हम।

लख्मी

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