Tuesday, December 16, 2008

लोकल फ़िल्म के द्वार खुले हैं

फ़िल्म आज के समय मे मनोरंजन का बहुत बड़ा ज़रिया है और जैब भरने का एक अच्छा-ख़ासा ज़रिया भी। आज हर शख़्स फ़िल्मो के पीछे ही अपने दकम बढ़ाना चाहता है। बस्ती के हर कोने में फ़िल्मों की सीडी, डीवीडी और कैसेट बिकते नज़र आते हैं। साथ-साथ फ़िल्मों मे अपने हाथ आज़माने से भी कोई नहीं कतराता। हर तरह की फ़िल्में बनाई जाती हैं चाहें वे बड़े पर्दे ही हो या छोटे पर्दे की। इसका कारोबार इस कदर फैला है कि बच्चे, जवान और बुज़ुर्ग सभी अपनी-अपनी मनपसंदन फ़िल्में देखकर अपना मनोरंजन करना चाहते हैं। साथ-साथ फ़िल्मों की दुनिया के कलाकारों के बारे मे जानने की भी जिज्ञागा रखते हैं।

शहर मे कितने ऐसे काम और रोज़गार हैं जिनमे लोग अपने परिवार और परिवार के हर सदस्य का गुजर-बसर करते हैं। लाख परेशानियाँ आ जाये तब भी अपने रोज़गार को और काम को नहीं छोड़ते और अगर किसी कारणवश छोड़ना या बन्द करना पड़े तो आखिरी वक़्त तक उसपर से दिन नहीं हटता। एक मलाल सा रहता है आखिरी वक़्त तक। आँख ये मानना ही नहीं चाहती है की अब इसे देखना बन्द कर।

हमारी भी सूची में कई ऐसे काम और रोज़गार हैं जो दिल की कुन्डियों पर टंगे है और पल्लू छोड़ना ही नहीं चाहते। ये तो दावे से नहीं कहा जा सकता है की ये काम हर बन्दे के लिए चाहत रखते हैं। मगर कुछ लोग हैं हमारे आसपास जो अपने काम-रोज़गार से दिली शुकुन और चाहत से बन्धे हुए हैं। उसी से अपने आसपास और शहर को सोचते, जानते, पहचानते और साधन का ज़रिया बनाते हैं।


एक शख़्स से अभी हाल-फिलहाल मे छोटी सी भेंट हुई। इनका नाम जनाब 'अली साहब' है। वैसे तो ये एक कोरियर कम्पनी में काम करते हैं पब्लिक डिलिंग का मगर इसमे इनका थोड़ा मन है नहीं। बस, कुछ और ही करने की तमन्ना रहती है।


जनाब को 'लोकल फिल्मे' यानि के देसी फ़िल्में जो किसी ख़ास ज़ुबान मे बनाई जाती है। जैसे हरियाणा, भौजपूरी, अवधी, ब्रज या यूपी भाषा मे। ये कई छोटी बस्ती यानि के कलोनियों में बहुत लोकप्रिय होती हैं। जो इन ज़ुबानो को जानते हैं वो इन्हे अपने घरों मे रखते हैं ये कहकर की ये हमारे देश की फ़िल्में हैं। देश यानि हमारे गाँव या हमारे रिवाज़ों से मेल रखती हैं जिसमे हमारी भाषा को उभारा गया है। इसमे अगर फ़िल्मों का थोड़ा मसाला मिल जाये तो वो सोने पे सुहागा हो जाता है। आजकल तो केबल टीवी वाले भी रोजाना शाम मे दो घन्टे इन्ही फ़िल्में दिखाने मे बहुत रूची दिखा रहे हैं। सबसे बड़ी अचम्भे की बात ये होती है की इनमे कोई बड़ा कैमरा, कोई बड़ा सेट या हीरो-हीरोइने नहीं होती। उसमे नुक्कड़, मोहल्ले या किसी शादियों मे लगने वाले शामियाने के जैसे सेट होते हैं। जिसमे रॉल मिलता है। मौहल्ले के शायरों, कवियों, गीतकारों, डाँसरों, हीरो यानि अदाकारो को। जिनके लिए ये अपनी कला दिखाने का या आज़माने के लिए किसी बड़े स्टेच से कम नहीं होता।


ऐसी ही फ़िल्मों का दक्षिण पुरी मे कोई कम क्रैज़ नहीं है। जनाब अली साबह भी उन क्षेत्रिये फ़िल्मों को जमा करते हैं और उनके ही म्यूज़िक पर नये तरह के गानो और गीतों को कम्पोज़ करते हैं। अपना एक छोटा सा कार्यालय बनाये हुए हैं जहाँ पर ये इस काम को अन्जाम देते हैं। इनके पास मे लड़को आना-जाना लगा रहता है।


अभी ये हाल ही मे अपनी कहानी से कोई क्षेत्रिये फ़िल्म बनाने की सोच रहे हैं। उसके लिए ये अपनी कालोनी मे कई अलग-अलग तरह के लोगों से भी मिले हैं। अभी इनकी फ़िल्म का ऑडिसन चल रहा है। अभी कुछ ज़्यादा मालुमात नहीं हुआ है के इनकी कहानी क्या है? वैसे तो कई तरह-तरह की कहानी इन्होंने लिखी है अपनी कलोनी को सोचते हुए। बस, वो कहीं परवान नहीं चड़ पाई हैं।


कलोनी मे सास-बहू, शादी मे होने वाले किस्से, दोस्तों मे प्यार के बुख़ार या बेरोज़गारी मे मोहब्बत, इनको लेकर वो बहुत बात करते हैं। लगता है की जैसे ये इनकी कहानी के शिर्षक होगें।


इसी काम मे बहुत मन है उनका। कोरियर मैन तो कहीं तक भी नज़र नहीं आता उनमे। इस काम को करते हुए काफी वक़्त हो गया है जिसमे अभी तक कोई मुनाफ़ा नहीं हुआ है मगर फिर भी मन से नहीं उतरता ये। बस, इसी धुन ने वो सवार हैं। जाईये ऑडिसन दे आईये...

लख्मी

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