Friday, December 26, 2008

पुर्नवास पुस्तकालय की गाथाएं

जे ब्लाक की मार्किट और एच ब्लाक के शुरूआत के बीच में दक्षिण पूरी का बस स्टेंड। जहाँ 521-580-512 बस खड़ी होती है। वहाँ उसके सामने ही ये पुस्तकालय पिछले 40 सालों से बनी हुआ है। एक बारात घर जो लगभग200 गज मे फैला हुआ है। उसी मे ये पुस्तकालय, टीवी सैन्टर और डिसपेन्सरी है।

मगर हम बात कर रहे हैं सरकारी पुस्तकालय की...
जिस पुस्तकालय को देखने व सम्भालने वाले उसे पुर्नवास पुस्तकालय कहते हैं। सरकारी महकमे मे इसे प्रस्तूत पुर्नवास पुस्तकालय के नाम से ही किया जाता है। जो लगभग 40 साल से एक ही जगह, एक ही कमरे मे जमी हुई है। दक्षिण पूरी इलाके के बनने के साथ-साथ कई सरकारी दस्ते भी बनाये गए थे। जहाँ बस स्टॉप के सामने कि जगह मे ये सरकारी कार्यालय बनाया गया था।

जहाँ अब तक टिके रहे हैं। पुस्तकालय और डिस्पेन्सरी। बाकि के कोनों मे ताले लगे गए हैं। ये पुस्तकालय लगभग 25 गज के कमरे मे है। जिसमे लगभग एक हजार से ज़्यादा किताबें होगीं। जिनको यहाँ पर रखे हुए भी10 से 20 साल हो गए हैं। मगर हर दिन ये साफ होती है और लोगों के घरों तक जाती है।

कमरा छोटा है मगर छोटा लगता नहीं है। तीन दिवारों से सटकर यहाँ पर तीन किताबों की अलमारी रखी है। जहाँ दरवाजे के साथ मे रखी अलमारी मे कई कहानियों की किताबें हैं। जिमने किसी मे भी कवर पेज नहीं है। सभी मे बाँइड कि गई ज़िल्त चड़ी हुई है। इन्ही से ही वो अलमारी इतनी भरी हुई लगती है की ना जाने कितनी किताबें रखी हुई हैं जिनमें किस किताब को पढ़ना है या क्या तलाशना है वो पहचानना मुश्किल है। कौन सी किताब कहाँ पर रखी है वो निकालना मुश्किल लगता है।

तैनालीराम और बीरबल से लेकर ना जाने और कितने लेखकों की कहानियों की किताबे वहाँ हैं। पुस्तकाअध्क्षक जी से बात की तो वो बोले, "इनमे सभी मे एक ही कहानी कि किताब है। इस अलमारी को ज़्यादातर बच्चे ही इस्तमाल करते हैं। वो आते हैं और जहाँ चाहों हाथ मारते हैं। फिर जब वो आधी कहानी को छोड़ते हैं तो अपनी पहचान वाली जगह पर रख देते हैं। दूसरे-तीसरे दिन वहाँ से निकाल लेते हैं।"

दूसरी दीवार जिसमे साहित्य और डिक्सनरी की किताबें भरी हुई हैं। साहित्य मे भाषा से लेकर नोबल सब हैं। उनको को देखकर ही ये बता दिया जा सकता है की उनकी उम्र क्या होगी। कपड़े के कवरों मे रखी गई किताबें अपनी पुरानी होने की गवाही दे रही थी। नोबल थे कत्ल और साजिस, दो चेहरे, घर और संसार, मेरी भाषा।

कुछ इस तरह के नोबलों की भरमार थी। कई नोबल तो एक ही लेखक के थे। उन्ही को वो सबसे नीचे लगाये हुए थे। भाग एक, भाग दो, भाग तीन और भाग चार करके वो एक ही कतार मे रखे हुए थे।

तीसरी दीवार मे कई लेखकों की किताबें थी। कहानियाँ, साहित्य, रचना, मुहावरें, दोहे, दर्शन, शहर और जीवनशैली। जिसमे कई लेखक थे। जैसे, प्रेमचन्द जी, गुलजार और कृष्णासोबती। इनके अलावा उसी मे कढ़ाई, सफ़ाई, बुनाई, कुकिंग और सिलाई की भी किताबें रखी हुई थी। जो कला के मुताबिक थी। इसपर पुस्तकाअध्क्षक जी कह रहे थे, "यहाँ पर ये किताबें खाली औरतें ही पढ़ती हैं। वो दोपहर मे या शाम मे आती हैं और इन्ही किताबों को उठाती है और बड़े चाव से पढ़ती हैं। कुछ तो यहाँ पर स्कूल की टीचर भी आती हैं और वो भी इन किताबों को पढ़ती है। सिलाई, कढ़ाई और खाना बनाना सीखने वाली भी लड़कियाँ आती हैं और इन्हे पढ़ती हैं।"

और वहीं पर एक कोने में एक अलमारी रखी हुई थी। जिसमे इतिहास की किताबें थी। जो देखा जाये तो यहाँ पर स्कूल के बच्चे ही पढ़ते होगें। नेताओं के बारे मे, बड़ी-बड़ी हस्तियों के बारे में लिखी गई किताबें। जगह के बारे में और दिल्ली में रैलियों के बारे में थी। उनको उस अलमारी में रखा गया था। मगर ऐसा कुछ भी नहीं था की कहीं पर भी हाथ ना डाला जा सके। आप कुछ भी पढ़ सकते हैं। वहीं पर बैठकर और कुछ भी निकाल सकते हैं।

बीच की जगह मे दो टेबल रखी हुई थी और छ: कुर्सियाँ। पढ़ने का कमरा बनाने के लिए। मातादीन जी जो यहाँ के करता धरता हैं। अभी फरवरी मे ही ये यहाँ पर शिफ़्ट हुए हैं। पहले ये डिफेन्स कालोनी मे थे। वहाँ पर एक ब्लाइंड पुस्तकालय है। सुबह दस बजे ये पुस्तकालय खुलता है और शाम मे पाँच बजे बन्द होता।

मातादीन जी पुस्कालय के बारे मे बता रहे थे। इस पुस्तकालय कि शुरूआत तो लगभग 40 साल पहले ही हुई थी। जिसको कहते हैं की पुर्नवास पुस्तकालय। जो पुर्नवास कलोनियों मे ही बनाया जाता है। लगभग 3 हजार किताबें हैं हमारे पास। और हर साल नई किताबें आती हैं। अभी तक हम लोगों ने इस पुस्तकालय से लगभग 20 हजार से भी ज़्यादा कार्ड बनाये हैं। यहाँ पर हर दिन मे बताये तो ज़्यादा से ज़्यादा एक दिन मे 30 लोग आते हैं और कम से कम 5। देखा जाये तो हर उम्र के लोगों का यहाँ पर आना रहता है। "हाँ' बच्चे, बड़े, औरतें सभी आते हैं। बच्चे अपनी कहानियों कि किताबें पढ़ते हैं और औरतें कुकिंग, सिलाई और कढ़ाई की किताबें पढ़ती हैं। सबसे ज़्यादा यहाँ पर आप अगर देखे तो मुंशी प्रेमचन्द की किताबें ज़्यादा ही है। क्योंकि यहाँ पर उनकी कहानी को ज़्यादा पढ़ा जाता है। शायद इसलिए भी की उन्होंने हर चीज लिखा है। हर तरह की किताबें लिखी हैं।"

यहाँ पर कुछ नियम भी हैं जैसे, किताबों मे पुस्तकालय का नाम और पता लिखा हुआ है। साथ-साथ किताब का सिरियल नम्बर भी है। किताब के शुरू के पेज मे पुस्तकालय कि मोहर है और एक कार्ड नम्बर सहित उसी किताब के कोने में फसाया हुआ है। छोटा सा पेज नोटिस की भांति हर किताब के साथ मे दिया गया है। खोने और फट जाने पर क्या भुगतान करना होगा।

यहाँ पर हर किताब की एक संख़्या है। हर संख़्या पर उसकी भाषा को परिभासित किया गया है। रजिस्टर मे उसकी एन्ट्री और पुस्तकालय का पता भी है।

उसी के साथ कुछ शर्ते हैं जैसे, एक कार्ड जिसकी किमत 2 रुपये है। जिससे पुस्तकालय का सदस्य बना जायेगा। जिसमे लिखा होगा, नाम-पता और अपने किसी जिला अधिकारी के हस्ताक्षर और मोहर के साथ मे अपना कोई स्थाई पता देना होगा। उसी कार्ड के जरिये यहाँ से किताब लेकर जा सकते हैं। नहीं तो यहाँ पर बैठकर पढ़ सकते हैं मगर लेकर नहीं जा सकते।

घर पर किताब ले जाने से पहले किताब के बारे मे और अपने बारे मे पूरा लिखवाना होगा। जो आपको 14 दिन के लिए दी जायेगी। अगर 14 दिन के बाद मे आप एक दिन भी देर करते हैं तो आपको एक दिन का 50 पैसे हरजाना देना होगा। और अगर आप से किसी भी कारण वो किताब खो जाती है या फट जाती है तो आपको उस किताब की पूरी कीमत देनी होगी।

आप अगर कोई किताब को पढ़ने मे अपेक्षा रखते हैं जो पुस्तकालय मे है नहीं तो आप अपने अपेक्षा पुस्तकालय के अध्यक्ष के पास लिखवा सकते हैं। वो कोशिश करेगें की वो किताब कैसे लाई जा सकती है या नहीं।

मातादीन जी बता रहे थे कि यहाँ पर कुछ आगे का प्लान भी बनाया गया है। जैसे, हर शख़्स के लिए 5 किताबें रखी जायेगी। ये उनके हिसाब से है। ताकी अगर हमारे सदस्य 500 हो जाते हैं तो हमारे पास मे 5000 किताबें हो जायेगीं। ये नया नियम शुरू हुआ है हर पुर्नवास पुस्तकालय में।

यहाँ दक्षिण पूरी के इस पुस्तकालय मे मातादीन जी के अन्डर मे सन 2006 से सन 2007 तक लोगों के कार्ड बनाने वालों की संख़्या 4000 हो गई है। जिसमे छ: रजिस्टर भर चुके हैं। हाँ ये बात और है की उन रजिस्टरों मे किताबें ले जाने वालों के नामों के आगे वो पैसे लिख रहे थे। किसी के आगे 5 रुपये तो किसी के आगे 20 रुपये। जब लगभग 30 रुपये तक हो जाते हैं तो ये खुद उनके घर जाते है किताब लेने।

वहाँ पर एक किताब को मैंने उठाया, उसमे कुछ पन्ने अलग से लगे हुए थे। किसी ने उन पन्नों मे अपने बारे मे कुछ लिखा हुआ था। उस किताब के हर तीसरे पन्ने पर एक सफ़ेद पन्ना लगा था। पहले पन्ने पर लिखा था। "मेरा दोस्त है राजू, जो मुझसे नराज हो गया है। जो भी इस किताब को पढ़े"
उसके बाद मे किताब कि कहानी चल रही थी। दूसरे पन्ने मे था।
"उसका नम्बर मे आखिर के पन्ने मे लिख रहा हूँ, कृप्या आप उसको मेरी तरफ से फोन करके कहना की अंजली बहुत प्यार करती है तुमसे।"
उसमे लिखा टेलिफोन नम्बर बहुत पूराना था। लगभग ये सन 1995 का होगा। क्योंकि उसी के बाद मे टेलिफोन के आगे 2 नम्बर लगाया गया था। नम्बर यहीं का था। 643432 अब इस नम्बर मैं क्या बात करता?
अगले पेज पर लिखा था।
"चलिये रहने दिजिये मैं खुद बात कर लुगीं लेकिन हो सके तो आप उसके घर जाकर बात कर लेना उसका पता मैंने लिख दिया है।"
लेकिन उस घर को काटा हुआ था। हम चाहकर भी ये नहीं पता कर सकते थे कि ये कहाँ का है? जब मैंने ये किताब मातादीन जी को दिखाई तो वे हँसने लगे। कहने लगे, "यहाँ के बच्चे बहुत शैतान है। ऐसी हरकतें तो आपको हर किताब मे दिखाई देगी। किसी-किसी मे तो उन्हे किताब कि कहानी के नीचे अपनी ही कहानी लिखी हुई है।"
ना जाने कितने ऐसे मैसेज़ उन किताबों मे भरे हुए थे। एक जगह से दूसरी जगह पर और एक किताब से दूसरी किताब तक ये मैसेज़ पँहुचने का काम करते। कहीं पर लाइनों के अन्दर ही किसी मैसेज़ को पहेली की भांति रखा गया था तो कहीं पर कुछ और। कभी-कभी तो ऐसा लग रहा था कि हम किताब की कहानी पढ़ रहे हैं या किसी का गुमनाम ख़त। हर लम्हे मे मज़ा था और थोड़ी हैरानी भी। वो तो उस बात को कहकर बस, हँसे जा रहे थे। अब उनको ये कौन बताता की ये किसी बच्चे का काम नहीं है किसी जवान का है। बहुत ही इश्क-मुश्क वाली बातें लिखी थी उसमे। खैर, ये जगह दक्षिण पुरी के एक मात्र ऐसी जगह थी जिसे हम पढ़ने की जगह कह सकते हैं। या शायद कुछ और भी।

लख्मी

No comments: