Tuesday, December 16, 2008

कैसे भूले हम इसे?

यहाँ-वहाँ से ली कुछ छवियों का रूप तुम्हारे और अपने खुद के सामने रख रहा हूँ। कहाँ हैं वो ठिकाने जिनमे बसने वाले शख़्स अपना आशियाना सवारते हुऐ - अनगिनत सपनों कि बली चढ़ जाते हैं? उनके समावेश से बनी और जुड़ी इच्छाएं दूसरो पर कुर्बान हो जाती हैं। शायद इच्छआएं मरती नहीं है। वो तो जीविकाओं में रूपातंरित हो जाती है। वक़्त अपनी गति नहीं बदलता, बदल जाते हैं उस गति में जीते आए लोग। जीवित हस्तियाँ वक़्त का वाहक बनती है तो कभी अदृश्य छवियाँ हमारे इर्द-गिर्द घूमती-फिरती है। तो वो छवि क्या है?

शख़्स आँखो के छलावो पर अपना जीवन व्यतीत करता है। एक तरह से उसे मालूम होता है पर उसकी आँखो पर कुछ नकाबपोश पर्दे पड़े होते हैं। जिसके कारण नकाबों के बीच घिरा शख़्स उन्ही पर निर्भर रहता है।

जैसे, रात में शहरों पर पड़ी अन्धेरे की काली चादर, जो अपने साये को चीज़ों पर ढाके रहना चाहती है। अन्धेरे मे वस्तु का अक्स भी खो जाता है पर इस अंधेरे की काली चादर ज़्यादा देर तक नहीं टिक पाती वक़्त के दौड़ते पलों के साथ एक उजाला इन वस्तुओं को उनका अक्स दे देता है ये प्रकृति का एक चला है। ऊपर-नीचे होता रहता है मगर बात एक जगह मे रूकने की नहीं है। एक उम्र जो अपने अन्दर ढेरों चीज़ों को बटोरकर तय किए पड़ाव पर अपने चिन्ह बनाती हैं और एक अवधि तक आकर ठहर जाती है। क्या वो उसका ठिकाना होता है? जो सपने-रिश्ते, ख़्वाइशो शख़्स अपने साथ लिए ठिकानों की कल्पना करता है और साथ-साथ बटोरी गई चीज़ों को बुनाई में लाता है शायद वो एक तरह से अपना परिचय तैयार करता है। लगता है, जीवन परिचय तैयार या फिर बनाने का स्तर है।

राकेश

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