हम बदलाव से निकलकर खुद को समझने की चेष्टा करते हुए क्या जानकारी बना लेते हैं? बदलाव को हम कहाँ से देखने की सोचें? कौन सा सही कोना है?
चुनाव की ये स्थिती का भी अपना एक मज़ा है। जिसे हर शख़्स अपने मे महसूस करता है। लोगों के साथ जीने के लिए ललायित होती है। एक ज़माना था, जब लोग छोटी-छोटी चीज़ों को किसी श़रबत की तरह आपस मे बाँटते थे। जिस की मिठास को बाँटने से उसका मज़ा और गहरा हो जाता था।
बीते वक़्त का हवाला देकर कहता हूँ की कभी लोग बिजली-पानी को भी घर मे आई मूंगफली की तरह बाँटते थे। यानी एक ही गली मे बिजली के अलग-अलग कनेक्शन लेकर अपना गुज़ारा किया करते थे। पड़ोसी के घर से बिजली लेकर टीवी चलाना और अपने घर को रोशन करना भी अलग ही नज़ारा हुआ करता था।
सन् 1983-84 का दौर इस बात का गवाह है की दक्षिणपुरी की पिछले वक़्त से आज के वक़्त तक की सिलसिले की यात्रा नित-नये फैलाव में रही है। जिससे पुराने मटीरियल पर नई रोशनी पड़ी। जिसकी चमक ने बहुत से ढ़ाँचो से हमें रू-ब-रू करवाया है जिससे पुराने काफ़िलों से नए जगत खुल रहे हैं। जैसे, पहले एक छोटा सा ट्राजिंस्टर भी मज़ेदार माहौल बना देता है। जहाँ बैठकर लोग आकाशवाणी सुनते थे जिसपर समाचार और गीतमाला आया करती थी। सुनने के स्रोत का तब कुछ अलग ही मंज़र हुआ करता था।
जब रेड़ियो (ट्राजिंस्टर) वालों पर लाइसेंस हुआ करता था। इसके कारण उनके अपने समुदाये में खुद की ख़ास भूमिका होती थी। आज उन लाइसेंसो के कागज़ सफ़ेद से पीले पड़ चुके हैं। वक़्त की धुँधली परछाइयों ने उस रंग को ढाक दिया है। सुनने वालों के समुदाये को सिर्फ़ जरूरत से ही नहीं भाँपा जा सकता। ये तो जिसकी जितनी चाहत है उसकी उतनी ही बड़ी ज़िज्ञासा होती है। उस पुराने समय मे बहुत कम लोग थे। जब किसी पर टेलिवीजन या ट्राजिंस्टर हुआ करते थे। इसलिये आज स्टूमेंट की दुनिया को तकनीकी प्रणाली मे ज़ॉयादा देखा जाता है।
एक-एक मकान मे तब एक-दूसरे के घर मे जाकर रेड़ियों और टीवी भी देखा करते थे। जब सुबह काम को जाते और शाम को वापस आते तो कुछ सुनने का मूड होता था। जिनके पास कोई साधन होता तो वे अपनी भूख को मिटा लेते। जिनके पास टीवी या रेड़ियो नहीं होता। वो पास-पड़ोस मे जाकर अपना मन बहला लेते थे।
दक्षिणपुरी मे जब सिनेमा घर जाना नहीं हो पाता था। तब बहुत ही कम लोग आते-जाते दिखाई पड़ते थे। उस समय सिनेमाघर काफ़ी दूर मालूम होता था। यहाँ के निवासी सिनेमाघर को विराट सिनेमा कहा करते थे। जिसपर सप्ताह में एक ही बार फ़िल्म बदलती थी। रोज़ाना चार शोह होते थे।
टीवी पर भी फ़िल्म, गाने, समाचार, सप्ताहिक जैसे कार्याक्रम दिखाये जाते थे। लेकिन बड़ी पसंद और बड़ा पर्दा, ये समझ सिनेमाघर से आती थी। जब कोई सिनेमा हॉल से कोई अच्छी फ़िल्म देखकर निकलता तो अपने दोस्तों को बताता हुआ चलता, "आज कौन सी फ़िल्म देखी और कितना मज़ा आया। वक़्त के साथ-साथ ज़िन्दगी भी जीने का तरीका ढूँढ ही लेती है। सिनेमा का क्रेज उन दिनों सिर चढ़कर बोलता था। लोगों के दिमाग मे बड़े पर्दे की जो कल्पना थी वो कहीं और नहीं मिलती थी फिर जरूरत के मुताबिक भी अपने पाँव फैलाना पड़ता था। कोई चारा भी तो नहीं था। पार्को मे मे भी दूर-दूर से संस्थाए परिवार नियोजन से सम्बधित फ़िल्में मुफ़्त दिखाया करती थी। हाँलाकि नौजवान इस कार्याक्रम में ज़्यादा रूची नहीं लिया करते थे।
घर मे जब भी माँ, बाप के साथ फ़िल्म देखे तो किसी डरावने सीन या अश्लिल विज्ञापन को देखकर वो हमें ड़ाँट कर भागा देते। कभी-कभी बहाने से टीवी का बैंड बदल देते या बन्द ही कर देते। समझ नहीं आता की क्या है? जो हमारे अविभावक देखने नहीं देते? बार-बार ये टेन्शन होती, कभी भी पूरा कार्याक्रम नहीं देख पाते थे पर पलटकर सवाल करना अपने बस मे नहीं था। मन ही मन सोचना और बड़बड़ाना तो आता था। सो खुद से बात कर लेतें। फिर अपने लिए बस, अकेले की दुनिया मे अपने ढ़ग से जीना अच्छा लगता था। जिसमें हम अपने को काफ़ी आरामदायक महसूस करते थे।जिसमें खुद को कहीं से दिख रहे सीन या कहानी मे खो जाते और कभी अपने को मौज़ूद पाते।
ऐसे मे सिर्फ़ वीसीआर ही ज़िन्दगी की कमी को पूरा करता था। जो अपने अकेलेपन के एकान्त को फ़िल्मों के साथ बाँटना था। ये अपनी तन्हाई के दिनों मे एक भराव करना जैसा ही था। इस तरह जब लड़के वापस अपने दोस्तों के बीच जाते तो वो बताते की घर मे अकेले कौन सी फ़िल्म देखी? जिस सब को धीरे-धीरे फ़िल्मों का क्रेज यानि चश्का लग गया। वो अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के शादी-ब्याह के जश्न की तरह मनाने के लिए फुल मनोरंजन करने का जुगाड़ बनाता। तब ऑक्रेस्ट्रा लाना सब के लिए बड़ा-भारी हुआ करता था। इसलिये अपने ब्लॉक के लोगों के कार्याक्रमों मे टेपरिर्कोड़र और वी.सी.आर को ही ज़रिया बना रखा था।
रोज रात को खाना-खाने के बाद लोग गलियों मे लोग सिनेमा देखने का माहौल बनाने लगे। इस तरह गलियों में महफ़िलें सी सजने लगी। सब अपने घरों से टाट, पटला, कुर्सियाँ लेकर टेबल पर रखे टीवी पर फ़िल्में देखते।
1994-95 तक इस दौर मे टीवी पर नए बैंड आ गए थे। जिसकी तरफ़ लोग आर्कषित भी हुए थे। लेकिन नई फ़िल्मों को सुनकर लोगों का मन होता की वो भी ऐसी ही फ़िल्मों को देखे, क्योंकि उस वक़्त की सारी माँगे दूरदर्शन का चैनल पूरी नहीं कर पाता था। तो सब वी.सी.आर की तरफ़ भागते थे। फिर वहाँ इसी बहाने एक-दूसरे से मुलाकात जो हो जाती थी। जब किसी एक पर पैसे नहीं होते तो सब पैसे जोड़कर वी.सी.आर किराये पर ले आते और देखते। बस, इन मुलाकातों ने अपने आप ही लोगों के अन्दर भड़की चिंगारी को हवा दे दी। जिससे ये हुआ की हर किसी को अपना मनपसंद कार्याक्रम भाने लगा। कभी-कभी अच्छे सीन को दोबारा देखने के लिए आपस मे वी.सी.आर के कान मरोड़ने या रिमोट के साथ खिंचातानी करने की मारा-मारी होने लगती।
अब हर कोई अपनी एक अलग छवि चाहता था। अपना मज़ा चाहता था। उन दिनों टीवी पर गिने चुने चैनल ही आते थे। दूरदर्शन और इ.एस.पी.एन के ज़रिये ही खेल, नाटक, चित्रहार, रंगोली, समाचार इत्यादी जैसे कार्याक्रम दिखाये जाते थे। कलर टीवी और वी.सी.आर का किराया तब चालिस रुपये होता था। जो रात भर के लिए होता था। पूरी रात में लोग दो ही फ़िल्में देख पाते थे। मूंगफ़लियों को चबाकर रात गुजारी जाती थी। अगले दिन फिर सभी स्रोता नई फ़िल्म तय करते।
यूँ गलियों में फ़िल्मी माहौल बना रहता। एक गली के लोग दूसरी गलियों के लोगों मे शामिल होने लगे। जिससे रोज़ाना रात की चर्चा सब के बीच होती। इस तरह लोगों ने अपने टीवी पर किराये पर फ़िल्म दिखाना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे लोगों मे इस तरह फ़िल्में देखने की दिलचश्पी बड़ती गई। अब सब रोज़ाना किसी न किसी का घर का कोना चुनते और रात को फ़िल्म देखते। वो स्थान जहाँ फ़िल्मों के बहाने सब अपने घरों की और अपनी दिल की सभी निजी बातें किया करते। वो जगह न तो किसी एक की होती न ही सार्वजनिक। वो जगह इससे कहीं अलग ही थी।
राकेश
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