Friday, December 26, 2008

हम डरते नहीं

लाखों वर्षो से जिसकी दिलों मे सदभावना जिन्दा रही
आज बचाने के लिए क्या कुछ नहीं, वतन के वज़ूद का ख़तरे में है राष्ट्रतंत्र
कुर्बानी की इस भूमी पर बने बगीचों को बचाने के लिए कोई दे गुरूमंत्र।

जिसकी शहादत की छाँव में पनपे जीवन कितने अनंत
उस मात् भूमी की प्रतीभा को फैलाने का कोई तो दे गुरूमंत्र।

इतिहास जो हमारी बहुमूल्य सौगात है, जिसके तले हमारा राष्ट्र है।
इसके आंगन मे खेली हमने अपने खून की होलियाँ,जो बनी मैदान हमारा, क्या महफ़ुज है वो गलियाँ
वो जलियावाला बाग है जिसकी मिट्टी हुई वीरों के रक़्त से लहुलूहान।
उस मिट्टी को लगाने से मिलता परम आनंद
शाहदत के इस जज़्बे को बचाने का कोई तो दे गुरूमंत्र।

अंग्रेजी फ़ौज को हमने दातों तले चनें चबवायें
आज उस आज़ादी ले ऊपर बैठे आतंकी नज़र गढ़ायें
उज्जवल भविष्य की और जाने को देश कर रहा हर जतन।
अब आ रही है शरहदों से वो आवाज़ें
अपनी गरीमा को बचाने का कोई तो दे गुरूमंत्र।

चाहें जादू करो या कोई टोना इंसानियत के दुश्मनों का नमोनिशाँ मिटा के है रहना।
कौन कहता है हम निहत्थे हैं, हम डरते नहीं गोली बारूद से।
स्वतंत्रता हमारा अधिकार है, जीना है खूले रूप से
हमें डरा नहीं सकता ये आतंक, बुलंदियों को छूने वाले इस विचार को
मिटने से बचाने का कोई तो दे गुरूमंत्र।

राकेश

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