Friday, December 26, 2008

जगह का बनना और पकड़े रहना

इन दिनों घर मे कुछ सोचने को मिला। जो शायद काफी दिनों के कारण था। जिसमे एक बदलाव था और एक ऐसा समय जिसके आने से कुछ सवालों के मायने बदल जाते हैं। लोगों के देखने के मायने, चीजों को समझने के मायने, रिश्तों के मायने और ना जाने कितनी वे बातें भी जिनका जुड़ाव हमारे जीवन से आसानी से नहीं होता। इन दिनों घर मे ये देखने को मिला। साथ-साथ एक सवाल भी जिसे मैं एक स्थिती कहूँगा।

अपनी जगह बनाना और उस जगह को पकड़े रहना इसे हम कैसे जीते हैं?

घर इस स्थिती को सोचने के लिए वैसे एक आसान सी जगह है। मगर इसकी शुरूआत असल मे वहीं से होती है।
एक दौर बताने की कोशिस करता हूँ।

घर मे एक जरूरत बन गई थी और वे थी कि किसी दो हाथों से कुछ आ रहा है। जो घर की माँगों के हिसाब से बिलकुल ठीक है। जब तक वे हाथ खाली थे तो तब तक वे घर की छत के नीचे पलने वाला एक साधारण सा रिश्ता के छवि में होता। लेकिन जब वे कमाऊ हो जाते हैं तो उनका वज़न बड़ जाता। ये वज़न बड़ने की महत्वपूर्णता उन हाथों के लिए भी बेहद जरूरी होती।

वैसे कुछ जगहें होती हैं जो समय के सार के साथ या बदलाव के साथ खुद-ब-खुद बन जाती हैं। उसके बाद में उनको बनाये रखने का काम जारी रहता है। जो हमारी करनी में होता है। लेकिन घर के अन्दर ये जगह बनाना कोई ढाँचा बनाना नहीं हुआ था। अभी तक देखा जाये तो लोगों के बीच में मुझे अपनी मौज़ुदगी और हाज़िर होने तक का अहसास था और असल मे ये मौज़ुदगी व हाज़िर होना मेरे शरीर से ही था। ये भी पता नहीं था मुझे। जब तक मैं घर मे था तो अपनी मौज़ुदगी व हाज़िर होने को बाहर की दुनिया में फैलाना जरूरी नहीं समझता था। बस, इस चार दीवारी में आपकी एक जगह है उसे समझना था। पर शायद ये कोई जगह नहीं थी ये तो एक ऑदा था और पारिवारिक रिश्ता जो निभाने को जगह का नाम देता है। या तो आप घर के किसी कोने मे अपने रिश्ते को नवाजों लेकिन वे किसी अन्य सोच को आपके अन्दर आने की इज़ाजत नहीं देगा।

"हर चीज समय पर" एक खम्बा सा खड़ा हो गया था मेरे नाम का। बस, अब उसमे सिमेंट डाल-डालकर मजबूत करना था। ताकि वे इस समय यहाँ पर मौज़ुद है उसका आभाष देता रहे। इतना होने के बाद में जब कुछ वक़्त अपनी इस दिनचर्या से बच जाता या आँखें अपने में उलझ जाती तो कुछ नया देखने की चाहत में निकल आता बाहर सड़क के किनारे। जहाँ पर कई मेरी उम्र के लोग और मेरे से बड़े लोग बैठकर बातें किया करते। वहाँ भी सभी वही जानते थे मेरे बारे मे जो घरवाले जानते थे कि लड़का कमाता है। उसके अलावा कुछ नहीं। लेकिन वे जगह जहाँ ये बातें हुआ करती थी वे इतनी भी सख़्त नहीं थी के वहाँ पर वे सब ही बताया जाये जो घर की दीवारों की याद दिलाता है। ये जगह कुछ और होने की चाहत रखती थी। वहाँ सबसे पहले मुझे मेरे कामों के अलावा कुछ नया नाम मिला। यहाँ पर कुछ समय के बाद ही मुझे मेरी यादों व अनुभव से जाना गया। एक ऐसा माहौल बना जिसमें कोई किसी के हाथों की तरफ नहीं देखता या माँगता। यहाँ पर कोई शर्त नहीं थी। यहाँ पर भी रिश्ते थे, बातें थी, सुनना था लेकिन जो मायने यहाँ पर थे वे घर मे क्यों नहीं होते? ये मैं रोजाना सोचता था। क्या परिवार को और बाहर को जीने के लिए हमारे पास अलग-अलग दिशायें होती हैं?

अपना जीना और लोगों के बीच में अपनी मौज़ुदगी को हम दो अलग-अलग भागों मे क्यों जीते हैं? अपने कोने को हम अपनी ज़िन्दगी मे वे जगह देते हैं जिसमें हम खुलकर जी पाते हैं। वहाँ पर हर कोई चीज खुद से लाते हैं, अपने माहौल खुद से बनाते हैं। ये कोना और बाहर लोगों के बीच मे अपने लिए जगह बनाना इन दोनों मे क्या फ़र्क होता है? क्या कोई दूरी है?

मेरे पास मेरे घर के कोने को बताने के लिए बहुत सी यादें हैं लेकिन उस कोने मे अन्य अनुभव कम हैं। इसमे कैसे हम अपने अलावा लोगों की भूमिका को देखते हैं? किसी जगह को चलाना और किसी जगह को बनाना क्या फ़र्क लाता है सोच में? बिलकुल वैसे ही, एक शख़्स के बारे मे बताता हूँ, वे कहते हैं, “मेरा रोज रियाज़ करना और रोज प्रदर्शन करना इन दोनों मे क्या फ़र्क लाता है?”

ये उनका सवाल होता। मेरे शरीर का उस कोने मे होना जरूरी होता है मगर वो क्या छोड़कर हम आते हैं जिसमें हमारे जाने के बाद भी वे अहसास हो जो हमारे होने का आभाष करा सके?

अपनी जगह को बनाना और उस जगह को पकड़े रहना मे एक तरह की बहस नज़र आती जो हम अपने से बाहर के लोगों के साथ मे करते हैं। मगर अपने से क्या बहस है? हमारी जगह में कितने लोग नज़र आते हैं और मेरी जगह में कितने? अपनी जगह को बताने के लिए मेरे पास मे यादें कितनी है और लोग कितने? क्या ज़ुबान है मेरे पास?

लख्मी

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