Sunday, December 7, 2008

ये कहाँ छुपे हैं, हुनर और रियाज़

ज़िन्दगी चलती रहती है और हम उसे जीने के स्रोत और तरीके बनाते रहते है। कभी तो उन्ही सभी स्रोतों को हम खुद से तैयार करते है। अपनी इच्छा के अनुसार उसमे एक-एक दिन को अपने जीने के अनुसार बनाते चलते है और कभी-कभी उन जीने के कारणो को हमें कोई बनाकर देता है। ये वाला जो बनाना है उसमे हम कभी अकेले नहीं होते बल्कि कई लोगों के साथ में मिलकर रहना होता है जिसमे एक बार तो हमें लगता है की दिन महज़ गुज़रता है, बितता है, कटता है और चलता है। मगर जब बात आती है अपने जीने के तरीकों को खुद से बनाने की तो फिर शुरूआत होती है, जीने की, और उसमे नये तरीकों को रचने की, फिर तो उसमे दिन किस तरह से बनता है या बनेगा उसे अपने रूपो के अनुसार हम बनाने की कोशिस करते हैं। हम अक्सर सोचते हैं कि हम अपनी कल्पना को कोई रूप नहीं दे पाते, कल्पना तक नहीं कर पाते, मगर शायद ये सब एक मनगढ़ंत कहानी है।

हर वक़्त शहर मे जीते शख़्स कुछ ना कुछ बनाते रहते हैं और हर तरफ़ में अपने जीने लायक कुछ ऐसे साधन बना ही लेते हैं जो खुद के हाथों मे रहता है। जिसकी धार को हर समय हम निख़ार मे रखते हैं और उसकी चमक को ताज़ा बनाये रखते है। इनका रिश्ता किसी चीज़ या बनाई नक्काशी से ही नहीं होता बल्कि हर वक़्त खुद को मँधते से रहता है। ऐसे कई तरह के हूनर है जो हर रोज के मँधने मे अपनी कामयाबी के मँसूबे बनाते है और जीते हैं। हर दिन को, अपने आज को, अपने हर वक़्त को। जो शायद ओझल रहता है। क्या हर हूनर का रिश्ता किसी आकृति से होता है? शायद नहीं! बस, वो तो हाथों मे रोज़ाना की बुनाई और नक्काशी से कब हाथों में जम जाता है वो पता ही नहीं चलता और उसकी डिमाँड कब बड़ जाती है? वो ही आँखें देख पाती है। एक ही दिन में अपने हाथों की रिपिटेशन होने वाली क्रिया उसे ऐसी गली दे देती है की वो अपने आप कई समय को अपने अन्दर उतार लेता है।

जैसे एक शख़्स हैं जिसे देखकर हमेशा दिमाग मे उनका कोई ना कोई रूप ठहर जाता है। रात के ढेड़ बज थे। रास्ते पर आर टी वी की भर्राती आवाज गूँजी। कूछ देर तक वो अपने कम तेज वाले स्वर में ही होती रही और फिर धीरे-धीरे कम होती कुछ देर के बाद मे सुनना बन्द भी हो गई।

प्रलाद जी स्कूल मे काम करते आ रहे हैं पिछले तीन सालों से पर अभी तक परमानेन्ट नहीं हुए थे। घर में बच्चे उनकी लम्बाई पकड़ चुके हैं। अब क्या काम कर सकते हैं? वही सोचते रहते है। और साथ-साथ ये डर तो है ही की अगर नौकरी छूट गई तो क्या होगा? रोज शाम को सात से साढ़े आठ बजे तक अमित भाई साहब की आर टी वी को साफ़ करते रहते हैं। जब तक वो गाड़ी पर आ नहीं जाते उसे चमका देते हैं। उसके बाद इंतजार करते हैं रात के होने का। बारह बजे का आखिरी चक्कर लगाकर गाड़ी वापस भी आ जाती है और रात को ढेड़ बजे वो समय आता है जब प्रलाद जी स्टेरिंग थमाते हैं। अमित जी पीछे गाड़ी मे सोते रहते हैं और इतने मे प्रलाद जी तीन बजे तक दक्षिणपुरी के सात से आठ और आठ से नौ चक्कर लगा डालते हैं। ये समय उनकी उस टेन्शन को तो भुला देता है जो उनके घर से पैदा होती थी। क्या मायने रखता है ये समय जीवन मे? कुछ तो होता है जो साफ़ होने लगता है शायद वो माँग जो शहर हमसे करता है या कुछ और? जैसे हर शख़्स अपने आपको सम्पूर्ण बनाने मे ही जुटा हो। वो हर तरफ़ मे दिखने लगता है।

अपने हाथों का महत्व ज़िन्दगी मे दिखने लगता है। अपने आपको सम्पूर्ण बनाने की कोशिस मे रहने वाला शख़्स उसी कोशिस के बलबूते पर अपने को दिखाने की ताकत रखता है।

एक और शख़्स हैं, हरीकिशन जी, उनकी करोलबाग मे एक कपड़े की दुकान हुआ करती थी पर इल्लिगल जगह मे दुकान होने के कारण वहाँ से दुकान को तोड़ा गया लेकिन इन्होंने कुछ समान को जैसे-तैसे बैचा और एक गाड़ी रखीदली और उसपर एक ड्राइवर रख लिया। इनके दो लड़के हैं। वो दोनों ही उसपर हैल्परी का काम करने लगे। बस, गाड़ी को साफ़ करना और उसे आगे-पीछे करना उनका लगा रहता था। बस, उसे वो आगे-पीछे करते रहते थे। हरीकिशन जी एक बात बार-बार दोहराते थे, "उम्र के साथ-साथ हूनर बँटता रहता है।" गाड़ी को धोते-धोते उनके हाथ भी साफ़ हो गए। पाँव ब्रैक तक आने लगे थे और कुछ दिनों के बाद ही उनको छोटे उस्ताद लोग कहने लगे। लेकिन इस ड्राईवर के सफ़र मे सीट पर बैठकर स्टेरिंग को घबराते हुए और बड़े से शीसे से नीचे झाँकते हुए, घुसकर ब्रैक दबाते हुए इन्हे किसी ने नहीं देखा। इस सब मे जो ये बीच के पल हैं वो इस लाइन मे लगे वे पल हैं जिन्हे अक्सर देखने वाली नज़रें गायब कर देती हैं पर जब खुद को दोहराते हैं तो सबसे पहले यही दिन जुबाँ पर आते हैं।

इस कुछ बन जाने की चाहत में जीवन के वे पल होते हैं जो कई भावों से गुज़रें हैं। इसमे वे बुनाई होती है, जो आज़ाद होती है। एक तरह का रियाज़ जिनपर कोई पाबंदी नहीं होती। इस रियाज़ के पल किसी को दिखे या ना दिखे पर हर शख़्स उसको अपनी तरह से आँकने लगता है जिसमे अपने रूटीन को जीना शुरू हो जाता है। ये क्या निख़ार बनाता है या लाता है? ज़िन्दगी मे कई माँगे बड़ती रहती हैं। अपने हाथ और अपने साथ चलता हूनर जिनमें ढले कई दिनों का खेल छुपा रहता है। वो बस, तभी सामने आता है जब खुद को दोहराया जाता है। अपनी ज़िन्दगी को कहानी बनाकर जीने वाला शख़्स कई चीज़ें ऐसी बना लेता है जिसके ताव मे वे कहीं किसी जगह मे खड़ा होकर खुद को बता सकें।

कई तरह के अनुभव तो इसी की रौब मे जीते हैं और ज़िन्दगी जीने के चलन को सीखकर दोहरा भी जाते हैं मगर पता है क्यों? कहीं ना कहीं से ये लाइन कानों मे पड़ ही जाती है, "हाथ का हूनर सीख लो कभी भूखा नहीं रहेगा।" क्या मतलब है इस सबका?

अपनी ज़िन्दगी को कुछ ख़ास सालों की सूची में ढ़ाले अपने हाथो को कोई तरीका दे देना और नक्काशी का कोई पैंतरा बना लेना। मगर क्या इससे समय दर समय अपने आपको बनाते चलने मे और पाने कि इस आकारनुमा रूप को शहर किस तरीके से अपनाता है? "डिग्रियाँ तो सबके पास होती है पर आप जानते क्या है?”

जब ये सवाल सामने आता है तो शख़्स से क्या माँग होती है? वो क्या चाहतें हैं जो नियम के आधार पर रखते है? क्या किसी रूप कि इच्छा या जरुरत? इस माँग या जरूरत मे वो चाय कि दुकान पर चाय बनाने वाला लड़का है जिसके हाथ की चाय पीने के लिए लोग बारिशों मे भी टूटे छप्पड के टपकते पानी मे भी खड़े रहते हैं? उसकी चाय की उस महक मे वे पतीले की जलने की महक शामिल है? वो प्लैट धोते उनके टूटने की आवाज़ें हैं? पता नहीं पर जब वो प्लैट धोकर रखता है तो उसपर उसके उंगलियों के निशान भी नहीं होते।

क्या शख़्स हर वक़्त शहर की माँगो पर जीता है? या उसके मुताबिक खुद को बनाता है? ये एक बड़ा वास्तविक सवाल है जो सभी कैसे ना कैसे थोड़ा बहुत धारण किए चल रहे हैं। बस, दिखाते ही तो नहीं है। समाज और शहर उस माँग मे वो रियाज़ करते बेहतरीन साल ओझल हुए नज़र आते हैं ये क्यों है? हर वक़्त अपने आपको इसी माँग मे बनाता शख़्स अपने को तरो-ताज़ा करने के लिए और अपने लिए कुछ शर्तें बनाता है और अपनी उम्र के साथ-साथ हाथो के कामो में ढ़ाल लेता है। जो उम्र के हिसाब से बँट भी जाता है पर वो कैसे? क्या हमने कभी अपने आपको देखा है कि कामो के साथ हमारे खुद के हाथो का क्या मेल है?

लख्मी

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